SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना रूपमें यद्यपि प्रा० देवसेनकृत भावसंग्रह (गा० ११०) में पाई जाती है परन्तु आहारको षड्विध माननेकी परम्परा प्राचीन है क्योंकि इसके पहिले आ० वीरसेनने भी धवला (पृ० ४०६) में छह आहारोंका उल्लेख किया है। श्वेताम्बर परम्परामें आहारके ओज आहार, लोम आहार और प्रक्षेपाहार ये तीन ही भेद उपलब्ध होते हैं। एकेन्द्रिय, देव और नारकियोंको छोड़कर बाकी सभी संसारी जीवोंके प्रक्षेपाहार होता है । प्रक्षेपाहार कवलाहार कहलाता है। इस तरह श्वेताम्बर परम्परामें कर्मनोकर्मके ग्रहणको आहार संज्ञा ही नहीं दी है। सभी अपर्याप्तक जीवोंको इस परम्परामें ओज आहारी स्वीकार किया है। श्वे० परम्परामें केवलीके शरीरको परमौदारिक न मानकर साधारण औदारिक ही माना है। इन्होंने केवलीको साधारण मानवकी तरह कवलाहारी मानकर भी, आश्चर्य तो यह है कि केवलीके आहार और नीहारको चर्मचक्षुओंके अगोचर माना है । जब केवलीके शरीरमें हम लोगोंके शरीरसे कोई वैशिष्टय नहीं है तब क्या कारण है कि केवलीके हाथमें दिया जाने वाला आहारपिंड तो दिख जाय पर केवली कैसे खाते हैं यह नहीं दिखे ? अस्तु। __ ज्ञात होता है कि यापनीयसंघके आचार्योंने जो स्वयं नग्न रहकर भी श्वे० आगमोंको तथा केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्तिके सिद्धान्तको युक्तिसंगत मानते थे, जब केवलिभुक्ति जैसे दिगम्बरपरम्पराविरोधी सिद्धान्तोंका समर्थन प्रारम्भ किया तो दिगम्बरोंने इसका तीब्रतासे प्रतिवाद भी किया। हम केवलिभुक्तिका स्वतन्त्रभावसे समर्थन शाकटायनके केवलिभुक्ति प्रकरणमें व्यवस्थित रीतिसे पाते हैं। इसके पहिले भी संभव है हरिभद्रसूरिने बोटिकनिषेध प्रकरणमें दिगम्बरोंका खंडन करते समय कुछ लिखा हो, पर शाकटायनने तो इन दो सिद्धातोंके स्वतन्त्रभावसे समर्थन करने वाले दो प्रकरण ही लिखे हैं। मलयगिरि आचार्यने इन शाकटायनको 'यापनीययतिग्रामाग्रणी' लिखा है, दिगम्बराचार्योका केवलिमुक्ति जैसे विवादग्रस्त विषयांपर श्वेताम्बरोंसे उतना विरोध नहीं था जितना इन नग्न यापनीयांसे था। यही कारण है कि प्रभाचन्द्र के न्यायकुमुदचन्द्र में यापनीय शाकटायनके केवलिभुक्तिप्रकरणका आनुपूर्वीसे खण्डन है। श्वेताम्बर तर्क ग्रन्थोंमें सन्मतितर्क टीका और उत्तराध्ययन पाइयटीकामें केवलिभुक्तिका समर्थन प्रायः यापनीयोंकी दलीलोंके आधार पर ही किया गया है। हाँ, वादिदेवसूरिने स्याद्वादरत्नाकरमें प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डगत युक्तियोंकी भी समालोचना की है। वीरसेन स्वामीने जयधवलामें कवलाहारका निषेध करते हुए वही मुख्य युक्तियाँ दी हैं जिनका उत्तर ग्रन्थों में भी सविस्तर वर्णन है । अर्थात् वेदनीयकर्म चार घातिया कर्मोंकी सहायतासे ही अपना कार्य करता है अतः मात्र वेदनीयकर्मके उदय होनेसे ही केवलीको क्षुधा तृषाका दुःख नहीं माना जा सकता है और न उसके निवारणार्थ कवलाहारका प्रयास ही । ज्ञान, ध्यान ओर संयमकी सिद्धिके लिए भी केवलीको भोजन करना उचित नहीं है क्योंकि पूर्णज्ञान, सकल क्षायिकचारित्र तथा शुक्लध्यानकी प्राप्ति उन्हें हो ही चुकी है। इस तरह भुक्तिके बाह्य आभ्यन्तर कारणोंका अभाव होनेसे केवली कवलाहारी नहीं होते। कवलाहारका सविस्तर खंडन न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ८५२, प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० ३००- रत्नकरण्ड टीका पृ० ५, प्रवचनसार जयसेनीय टीका पृ० २८, आदिमें देखना चाहिए । (१)"भावाहारो तिविहो ओए लोमे ए पक्खेवे । 'प्रोयाहारा जीवा सव्वे अपज्जतगा मुणेयव्वा । पज्जत्तगा य लोमे पक्खेंवे होइ नायव्वा ॥ एइंदियदेवाणं णेरइयाणं च णत्थि पक्खेवो। सेसाणं पक्खेवो संसारस्थाण जीवाणं ॥"-सूत्रकृ० नि० गा० १७०-१७३ । (२) देखो जनसाहित्यसंशोधक खंड २ अंक ३-४ । (३) नन्दीसूत्रटीका पु० १५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy