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________________ ६८ जयधवलासहित कषायप्रामृत “विग्गहगइमावण्णा केवलिणो समहदो अजोगी य । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारिणो जीवा ॥" यह हारी और अनाहारी जीवोंका विभाग करनेवाली गाथा दोनों ही परम्पराओंमें प्रचलित है। जीवसमास ( गा०८२ ) और उमास्वातिकृत श्रावकप्रज्ञप्तिमें यह विद्यमान है तथा धवलाटीकामें उद्धृत है। जीवकांडमें भी यह गाथा दर्ज है। षट्खंडागम मूलसूत्र (पृ० ४०९) में "आहारा एइंदियप्पहुडि जाव सजोगकेवलि ति" यह सूत्र है। इससे सामान्यतः इस विषयमें दोनों परम्पराएँ एकमत हैं कि केवली आहारी होते हैं। विवाद है उनके कवलाहारमें । वे हम लोगोंकी तरह प्रास लेकर आहार करते हैं या नहीं ? श्वे० समवायांग ( सू० ३४ ) में "पच्छन्ने प्राहारनीहारे अविस्से मंसचक्खुणा" अर्थात् केवलीके आहार और नीहार चर्मचक्षुओंके अगोचर होते हैं यह वर्णन है। न्यायकुमुदचन्द्र (१० ८५५) में कवलाहारवादके पूर्वपक्षमें लिखा है कि केवली समवसरणके दूसरे परकोटेमें बने हुए देवच्छन्दक नामक स्थानमें गणधरदेव आदिके द्वारा लाए गए आहारको भूख लगने पर खाते हैं। केवलीके हाथमें दिया गया भोजनका ग्रास तो दिखाई देता है पर यह नहीं दिखाई देता कि वे कैसे भोजन करते हैं क्योंकि सर्वज्ञके आहार नीहार मनुष्य तिर्यञ्चोंके लिए अदृश्य होते हैं। स्याद्वादरत्नाकरकार वादिदेवसूरिने न्यायकुमुदचन्द्रके उक्त वर्णनको सिद्धान्तरूपसे माना है । (स्या० र०पू० ४६९) इसके सिवाय सूत्रकृतांग (आहारपरिज्ञा तृतीयाध्ययन) भगवतीसूत्र (२१) प्रज्ञापनासूत्र (आहार पद) कल्पसूत्र (सू० २२०) आदिमें केवलीको कवलाहारी सिद्ध करनेवाले सूत्र हैं। भगवतीसूत्र (२।१९०) में भगवान् महावीरको 'वियडभोती' विशेषणसे 'नित्यभोजी' सूचित किया है। इस तरह श्वेताम्बर परम्परामें केवलीको कवलाहारी बराबर प्राचीन कालसे मानते आते हैं। दिगम्बर परम्परामें हम केवलीके कवलाहार निषेधक वाक्य कुन्दकुन्दके बोधपाहुडमें पाते हैं। "जरवाहिदुक्खरहियं आहारणिहारवज्जियं विमलं । सिंहाणखेलसेनों णथि दुगुंछा य दोसो य॥" इस गाथामें केवलोको आहार और नीहारसे रहित बताया है। प्रा० यतिवृषभ त्रिलोकप्रज्ञप्ति (गा० ५९) में भगवान महावीरको क्षुधा आदि परीषहोंसे रहित लिखते हैं। आ० पूज्यपाद (सर्वार्थ सिद्धि २।४) में केवलीको कवलाहार क्रियासे रहित तो बताते ही हैं साथ ही साथ वे यह भी स्पष्ट लिखते हैं कि भगवानको लाभान्तरायके समूलक्षय हो जानेसे प्रति समय अनन्त शुभ पुद्गल आते रहते हैं इनसे भगवानके शरीरकी स्थिति जीवनपर्यन्त चलती है। यही उन्हें क्षायिक लाभ है। इस तरह दिगम्बर परम्परा कवलाहारित्वका निषेध भी प्राचीन कालसे ही करती चली आई है। आगमोंमें जो केवलीको आहारी कहा है, उसके विषयमें विचारणीय मुद्रा यह है कि केवली कौनसा आहार लेते थे । दिगम्बर परम्परामें आहार छह प्रकारका बताया गया है "णोकम्मकम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो। ओजमणो वि य कमसो आहारो छविहो ओ॥" अर्थात् नोकर्माहार, कर्माहार, कवलाहार, लेप्याहार, अोज आहार, और मन आहार ये छह प्रकारके आहार हैं। न्यायकुमुदचन्द्रमें इनमेंसे केवलीके नोकर्माहार और कर्माहार ये दो आहार स्वीकार किए गए हैं। परन्तु धवलाटीकामें मात्र नोकर्माहार ही माना है । लब्धिसार (गा० ६१४ ) में धवलाप्रतिपादित मत ही है। ऊपर आहारके छह भेद बतानेवाली गाथा इसी (१) देखो सन्मतितर्क टी० टि० पृ० ६१३-१४ । (२) न्यायमुमुदचन्द्र पृ० ८५६ । (३) "अत्र कवललेपोष्ममनःकर्माहारान् परित्यज्य नोकर्माहारो ग्राह्यः ।"-षट्खंडा० टी० पृ० ४०९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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