SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस प्रकाशन कार्य में प्रारम्भसे ही धवलाके सम्पादक प्रो० हीरालालजी अमरावतीका प्रेमपूर्ण सहयोग रहा है। उन्हींके द्वारा पं० हीरालालजीसे जयधवलाकी प्रेस कापी प्राप्त हो सकी और उन्होंने मूड़विद्रीकी ताड़पत्रकी प्रतिके साथ उसके मिलानकी पूरी व्यवस्था की, तथा कुछ ब्लाक भी भेजनेकी उदारता दिखलाई । अतः मैं उनका तथा पं० हीरालालजीका आभारी हूँ। __ प्रति मिलानका कार्य सरस्वतीभूषण पं० लोकनाथ जी शास्त्रीने अपने सहयोगी दो विद्वानोंके साथ बड़े परिश्रमसे किया है। किन्हीं स्थलोंका बारबार मिलान करवानेपर भी आपने बराबर मिलान करके भेजनेका कष्ट उठाया तथा मूड़विद्रीकी श्री जयधवलाकी प्रतियोंका परिचय भी लिखकर भेजा। अतः मैं पं० जी तथा उनके सहयोगियोंका आभारी हूँ। सहारनपुरके स्व० लाला जम्बूप्रसादजीके सुपुत्र रायसाहब लाला प्रद्युम्नकुमारजीने अपने श्रीमन्दिरजी की श्री जयधवलाजी की उस प्रतिसे मिलान करने देनेकी उदारता दिखलाई जो उत्तर भारतकी श्राद्य प्रति है। अतः मैं लाला सा० का हृदयसे आभारी हूँ। जैनसिद्धान्तभवन आराके पुस्तकाध्यक्ष पं० भुजवलि शास्त्रीके सौजन्यसे भवनसे सिद्धान्त ग्रन्थोंकी प्रतियाँ तथा अन्य आवश्यक पुस्तकें प्राप्त हो सकी हैं। तथा पूज्य पं० गणेशप्रसादजो वर्णीकी आज्ञासे सागर विद्यालयके भवनकी प्रतियाँ मंत्री पं० मुन्नालालजी रांधेलीयने देनेकी उदारता की है। अतः मैं उक्त सभी महानुभावोंका आभारी हूँ। प्रो० ए० एन० उपाध्येने राजाराम कालिज कोल्हापुरके कनाड़ीके प्रो० सा० से जयधवलाकी प्रतिके अन्तमें उपलब्ध कन्नड प्रशस्तिका अंग्रेजी अनुवाद कराकर भेजनेका कष्ट किया था जो इस भागमें नहीं दिया जा सका । अतः मैं प्रो० उपाध्ये तथा उनके मित्र प्रोफेसर सा० का हृदयसे आभारी हूँ। हिन्दू वि०वि० प्रेसके मैनेजर पं० प्यारेलाल भार्गवका भी मैं आभार स्वीकार किये बिना नहीं रह सकता, जिनके प्रयत्नसे कागजकी प्राप्ति होनेसे लेकर जिल्द बंधाई तक सभी कार्य सुकर हो सका। सम्पादनकी तरह प्रकाशनका भी उत्तरदायित्व एक तरहसे हम तीनोंपर ही है। अतः मैं अपने सहयोगी सम्पादकों खास करके न्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमारजीका आभार स्वीकार करके उनके परिश्रमको कम करना नहीं चाहता जो उन्होंने इस खण्डके प्रकाशनमें किया है। अन्तमें संघके प्राण उसके सुयोग्य प्रधानमंत्री पं० राजेन्द्रकुमारजीका भी स्मरण किये विना नहीं रह सकता, जिनके कन्धोंपर ही यह सब भार है। हम लोगोंकी इच्छा थी कि इस खण्डमें उनका भी ब्लाक रहे किन्तु उन्होंने स्वीकार नहीं किया। यह कार्य महान है और उसका भार तभी सम्हाला जा सकता है जब सभीका उसमें सहयोग रहे । अतः मेरा उक्त सभी महानुभावों और सज्जनोंसे इसी प्रकार अपना सहयोग बनाये रखनेका अनुरोध है। दूसरे भागका अनुवाद भी तैयार है। आशा है हम दूसरा भाग भी पाठकोंके करकमलोंमें शीघ्र ही दे सकेंगे। काशी कार्तिक पूर्णिमा वी०नि० सं०२४७०) कैलाशचन्द्र शास्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy