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________________ सम्पादकीय-वक्तव्य दो वर्ष हुए, हम लोगोंने कार्तिकशुक्ला तृतीया वीर नि० संवत् २४६८ ता० २३ अक्टूबर सन् १९४० के दिन सर्वार्थसिद्धियोगमें जिनेन्द्रपूजनपूर्वक जयधवलाके सम्पादनका काम प्रारम्भ किया था। जिस दृढ़ संकल्पको लेकर हमलोग इस कार्यमें संलग्न हुए थे उसीके फलस्वरूप हम इस भागको पाठकोंके हाथों में कुछ दृढ़तासे सौंपते हुए किश्चित् उल्लाघताका अनुभव कर रहे हैं। इस भागमें गुणधर आचार्यके कसायपाहुडकी कुछ गाथाएँ और उनपर यतिवृषभाचार्यके चूर्णिसूत्र भी मुद्रित हैं जिनपर जयधवला टीका रची गई है। इस सिद्धान्तग्रन्थका षड्खंडागम जितना ही महत्त्व है क्योंकि इसका पूर्वश्रुतसे सीधा सम्बन्ध है। हम लोगोंने इसका जिस पद्धतिसे सम्पादन किया है उसका विवरण इस प्रकार है ___ संशोधनपद्धति तथा ग्रन्थके बाह्यस्वरूपके विषयमें अमरावतीसे प्रकाशित होनेवाले श्रीधवलसिद्धान्तमें जो पद्धति अपनाई गई है साधारणतया उसी सरणिसे इसमें एकरूपता लानेका प्रयत्न किया है। हाँ, प्रयत्न करनेपर भी हमें क्राउन साइजका कागज नहीं मिल सका इसलिए इस ग्रन्थका सुपररायल साइजमें प्रकाशित करना पड़ा है। हस्त लिखित प्रतियोंका परिचय इस भागका संस्करण जिन प्रतियोंके आधारसे किया गया है उनका परिचय निम्नप्रकार है (२) ता-यह मूडविद्रीकी मूल ताडपत्रीय प्रति है। इसकी लिपि कनाडी है । इसमें कुल पत्रसंख्या ५१८ है। प्रत्येक पत्रकी लम्बाई २ फुट ३ इंच और चौड़ाई २।। इंच है। इसके प्रत्येक पत्रमें २६ पंक्ति और प्रत्येक पंक्तिमें लगभग १३८ अक्षर हैं। प्रति सुन्दर और सचित्र है। अधिक त्रुटित नहीं है। २, ३ पत्रोंके कुछ अक्षर पानीसे भीगकर साफ हो गये हैं। आईग्लाससे भी वे नहीं बाँचे जा सकते हैं । यह प्रति श्री भुजबलि अण्णा श्रेष्ठीने लिखवाकर पद्मसेन मुनीन्द्रको दान की थी। इस परसे देवनागरी लिपिमें एक प्रति श्री गजपतिजी शास्त्रीने की है। जो वीर निर्वाण सं० २४३० में प्रारम्भ होकर माघ शुक्ला ४ वीर निर्वाण संवत् २४३७ में समाप्त हुई थी। तथा कनाडी लिपिमें दो प्रतियाँ और हुई हैं जो क्रमशः पं० देवराजजी श्रेष्ठी और पं० शान्तप्पेन्द्रजीने की थीं। ये सब प्रतियाँ मूडविद्रीके भण्डारमें सुरक्षित हैं। यद्यपि मूडविद्रीकी यह कनाडी प्रति संशोधनके समय हमारे सामने उपस्थित नहीं थी। फिर भी यहाँसे प्रेसकापी भेज कर उस परसे मिलान करवा लिया गया था। (२) स-यह सहारनपुरकी प्रति है जो कागज पर है और जिसकी लिपि देवनागरी है। मडचिद्रीके ताडपत्रोंपरसे पं० गजपतिजी उपाध्यायने अपनी विदुषी पत्नी लक्ष्मीबाईजीके साहाय्यसे जो प्रति गुप्तरीतिसे की थी वह आधुनिक कनाडी लिपिमें कागज पर है। उसी परसे देवनागरीमें यह प्रति की गई है। वहाँ कागजपर देवनागरीमें एक प्रति और भी है। ये प्रतियाँ सहारनपुर में श्रीमान लाला प्रद्युम्नकुमारजी रईसके श्रीमन्दिरजीमें विराजमान हैं। हममेंसे पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने सहारनपुरकी इसी देवनागरी प्रतिके ऊपरसे मिलान किया है । (३) अ, आ-ये अमरावती और आराकी प्रतियाँ हैं। यद्यपि अमरावतीकी मूल प्रति हमारे सामने उपस्थित नहीं थी। पर धवलाके भूतपूर्व सहायक सम्पादक पण्डित हीरालालजीसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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