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________________ प्रकाशककी ओरसे यह परम सन्तोषकी बात है कि दि० जैन संघ-ग्रन्थमालाका श्रीगणेश एक ऐसे महान ग्रन्थराजके प्रकाशनसे हो रहा है, जिसका श्रीवीर भगवानको द्वादशाङ्ग वाणीसे साक्षात् सम्बन्ध है। जिस समय श्रीजयधवलाजीके प्रकाशनका विचार किया गया था उस समय भी यूरूपमें महाभारत मचा हुआ था। किन्तु सम्पादनका कार्य प्रारम्भ होनेके डेढ़ मास बाद ही भारतके पूर्व में भी युद्धकी आग भड़क उठी और वह बढ़ती हुई कुछ ही समयमें भारत के द्वार तक आ पहुँची। उस समय एक ओर तो काशी खतरनाक क्षेत्र घोषित कर दिया गया, दूसरी ओर प्रयत्न करने पर भी कागजकी व्यवस्था हो सकना अशक्य सा जान पड़ने लगा। खैर, हिम्मत करके जिस किसी तरहसे कागजका प्रबन्ध किया गया और पटनासे बिल्टी भी बनकर आ गई। किन्तु उसके दो चार दिन बाद ही देशमें विप्लव सा मच गया। पटना स्टेशन और वी० एन० डब्ल्यू रेलवे पर जो कुछ बीती उसे सुनकर कागजके सकुशल बनारस आनेकी आशा ही जाती रही। किन्तु सौभाग्यसे कागज सकुशल आ गया, और इन अनेक कठिनाइयोंको पार करके यह पहला खण्ड छपकर प्रकाशित हो रहा है। कागजके इस दुष्कालमें पुस्तकोपयोगी वस्तुओंका मूल्य कितना अधिक बढ़ गया है और सरकारी नियन्त्रणके कारण कागजकी प्राप्ति कितनी कठिन है, यह आज किसीको बतलानेकी जरूरत नहीं है। फिर भी मूल्य वही रखा गया है, जो धवलाके लिये निर्धारित किया जा चुका है। इसका श्रेय जिन संकोचशील उदार दानीको है उनका ब्लाक वगैरह देकर हम उनका परिचय देना चाहते थे, किन्तु उन्होंने अपनी उदारतावश नाम भी देना स्वीकार नहीं किया। अतः उनके प्रति किन शब्दोंमें मैं अपनी कृतज्ञताका ज्ञापन करूँ। मैं उनका आभार सादर स्वीकार करता हूँ। इस ग्रन्थके प्रकाशमें आनेका इतिहास धवलाके प्रथम भागमें दिया जा चुका है । यदि मूडविद्रीके पुज्य भट्टारक और पंच महानुभावोंने सिद्धान्तग्रन्थोंकी रक्षा इतनी तत्परतासे न की होती तो कौन कह सकता है कि जैनवाङ्मयके अन्य अनेक ग्रन्थरत्नोंको तरह ये ग्रन्थरत्न भी केवल इतिहासकी वस्तु न बन जाते । उन्हींकी उदारतासे आज मूलप्रतियोंके साथ मिलान होकर सिद्धान्तग्रन्थोंका प्रकाशन प्रामाणिकताके साथ हो रहा है। अतः मैं पूज्य भट्टारकजी तथा सम्माननीय पंचोंका आभार सादर स्वीकार __ काशीमें गङ्गा तटपर स्थित स्व. वा. छेदीलालजीके जिनमन्दिरके नीचेके भागमें जयधवलाका कार्यालय स्थित है और यह सब स्व० बाबू सा० के सुपुत्र धर्मप्रेमी बाबू गणेशदासजीके सौजन्य और धर्म प्रेमका परिचायक है । अतः मैं बाबू सा० का हृदयसे आभारी हूँ। स्याद्वाद महाविद्यालय काशीके अकलंक सरस्वतीभवनको पूज्य पं० गणेशप्रसादजीने अपनी धर्ममाता स्व० चिरोंजीबाईकी स्मृतिमें एक निधि समर्पित की है जिसके व्याजसे प्रतिवर्ष विविधविषयोंके ग्रन्थोंका संकलन होता रहता है। विद्यालयके व्यवस्थापकोंके सौजन्यसे उस ग्रन्थसंग्रहका उपयोग जयधवलाके सम्पादन आदिमें किया जा सका है। अतः पूज्य पं० जी तथा विद्यालयके व्यवस्थापकोंका मैं आभारी हूँ। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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