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________________ ८५ प्रस्तावना क्त्वकी उत्पत्ति में ही कर लिया गया है। अतः उसे छोड़कर जो वेदक सम्यग्दृष्टि या वेदकप्रायोग्य मिथ्यादृष्टि संयमासंयमको प्राप्त करता है उसका प्ररूपण इस अधिकार में किया है । उसके प्रारम्भके दो ही करण होते हैं, तीसरा अनिवृत्तिकरण नहीं होता है । अतः इस अधिकारमें दोनों करणोंमें होने वाले कार्योंका विस्तारसे विवेचन किया गया है । इस अधिकारमें केवल एक ही गाथा है । (१३) संयमलब्धि - जो गाथा १२ वे देशविरत अधिकारमें है वही गाथा इस अधिकार में भी है । संयमासंयमलब्धि के ही समान विवक्षित संयमलब्धि में भी दो ही करण होते हैं, जिनका विवेचन संयमासंयमलब्धिकी ही तरह बतलाया है । अन्तमें संयमलब्धिसे युक्त जीवोंका निरूपण आठ नियोगद्वारोंसे किया है । (१४) चारित्र मोहनीयकी उपशामना-इस अधिकार में आठ गाथाएं हैं। पहली गाथाके द्वारा, उपशामना कितने प्रकारकी है, किस किस कर्मका उपशम होता है, आदि प्रश्नोंका अवतार किया गया है । दूसरी गाथाके द्वारा, निरुद्ध चारित्रमोह प्रकृतिकी स्थिति के कितने भागका उपशम करता है, कितने भागका संक्रमण करता है कितने भागकी उदीरणा करता है आदि प्रश्नोंका अवतार किया गया है । तीसरी गाथाके द्वारा, निरुद्ध चारित्रमोहनीय प्रकृतिका उपशम कितने काल में करता है, उपशम करनेपर संक्रमण और उदीरणा कब करता है, आदि प्रश्नों का अवतार किया गया है । चौथी गाथाके द्वारा, आठ कररणोंमेंसे उपशामकके कब किस करणकी व्युच्छित्ति होती है आदि प्रश्नोंका अवतार किया गया है । जिनका समाधान चूर्णिसूत्रकारने विस्तारसे किया है । इस प्रकार इन चार गाथाओंके द्वारा उपशामकका निरूपण किया गया है और शेष चार गाथाओं के द्वारा उपशामक के पतनका निरूपण किया गया है, जिसमें प्रतिपातके भेद, आदिका सुन्दर विवेचन है । (१५) चारित्र मोहकी क्षपणा - यह अधिकार बहुत विस्तृत है। इसमें क्षपकश्रेणिका विवेचन विस्तारसे किया गया है । अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के विना चारित्रमोहका क्षय नहीं हो सकता, अतः प्रारम्भ में चूर्णिसूत्रकारने इन तीनों करणों में होनेवाले कार्यों का विस्तार से वर्णन किया है। नौवें गुणस्थानके अवेदभाग में पहुंचने पर जो कार्यं होता है उसका विवेचन गाथा सूत्रोंसे प्रारम्भ होता है । इस अधिकार में मूलगाथाएं २८ हैं और उनकी भाष्य गाथाएं ८६ हैं । इस प्रकार इसमें कुल गाथाएं १९४ हैं । जिसका बहुभाग मोहनीयकर्मकी क्षपणासे सम्बन्ध रखता है । अन्तकी कुछ गाथाओं में कषायका क्षय हो जानेके पश्चात् जो कुछ कार्य होता है उसका विवेचन किया है । अन्तकी गाथा में लिखा है कि जब तक यह जीव कषायका क्षय होजानेपर भी छद्मस्थ पर्यायसे नहीं निकलता है तब तक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्म का नियमसे वेदन करता है । उसके पश्चात् दूसरे शुक्लध्यान से समस्त घातिकर्मों को समूल नष्ट करके सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होकर विहार करता है । कषायप्राभृत यहां समाप्त हो जाता है । किन्तु सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो जाने के बाद भी जीवके चार अघातिया कर्म शेष रह जाते हैं, अतः उनके क्षयका विधान चूर्णिसूत्रकारने पश्चिमस्कन्धनामक अनुयोगद्वार के द्वारा किया है । और वह द्वार चारित्रमोहकी क्षपणा नामक अधिकारकी समाप्ति के बाद प्रारम्भ होता है । इसमें चार अघातिकर्मों का क्षय बतलाकर जीवको मोक्षकी प्राप्ति होनेका कथन किया गया है । इस प्रकार संक्षेपमें यह कषाय प्राभृतके अधिकारोंका परिचय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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