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________________ जयधवलासहित कषायप्राभृत (८) चतुःस्थान-घातिकर्मों में शक्तिकी अपेक्षा लता आदि रूप चार स्थानोंका विभाग किया जाता है। उन्हें क्रमशः एक स्थान, द्विस्थान, त्रिस्थान और चतुःस्थान कहते हैं। इस अधिकारमें क्रोध, मान, माया और लोभकषायके उन चारों स्थानोंका वर्णन है इसलिये इस अधिकारका नाम चतुःस्थान है। इसमें १६ गाथाएँ हैं। पहली गाथाके द्वारा क्रोध मान माया और लाभके चार चार प्रकार होनेका उल्लेख किया है और दूसरी, तीसरी तथा चौथी गाथाके द्वारा वे प्रकार बतलाये हैं। पत्थर, पृथिवी, रेत और पानी में हुई लकीरके समान क्रोध चार प्रकारका होता है । पत्थरका स्तम्भ, हड्डी, लकड़ी और लताके समान चार प्रकारका मान होता है, आदि । चारों कषायोंके इन सोलह स्थानोंमें कौन किससे अधिक होता है कौन किससे हीन होता है ? कौन स्थान सर्वघाती है और कौन स्थान देशघाती है ? क्या सभी गतियों में सभी स्थान होते हैं या कुछ अन्तर है ? किस स्थानका अनुभवन करते हुए किस स्थानका बंध होता है और किस स्थानका अनुभवन नहीं करते हुए किस स्थानका बंध नहीं होता ? आदि बातोंका वर्णन इस अधिकारमें है। () व्यञ्जन-इस अधिकारमें पाँच गाथाओंके द्वारा क्रोध, मान, माया और लाभके पर्यायवाची शब्दोंको बतलाया है । जैसे, क्रोधके क्रोध, रोष, द्वेष आदि, मानके मद, दर्प, स्तम्भ आदि, मायाके निकृति वंचना आदि और लाभके काम, राग, निदान, आदि। इनके द्वारा ग्रन्थकारने यह बतलाया है किस किस कषायमें कौन कौन बातें आती हैं। इन पर्यायशब्दोंसे प्रत्येक कषायका स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। (१०) दर्शनमोहोपशमना-इस अधिकारमें दर्शनमोहनीय कर्मकी उपशमनाका वर्णन है। दर्शमोहनीयकी उपशमनाके लिये जीव तीन करण करता है-अधःकरण, अपूर्वकरण ओर अनिवृत्तिकरण । प्रारम्भमें ग्रन्थकारने चार गाथाओंके द्वारा अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे लेकर नीचेकी और ऊपरकी अवस्थाओंमें होनेवाले कार्योंका प्रश्नरूपमें निर्देश किया है। जैसे पहली गाथामें प्रश्न किया गया है कि दर्शनमोहनीयकी उपशमना करनेवाले जीवके परिणाम कैसे होते हैं ? उनके कौन योग, कौन कषाय, कौन उपयोग, कौन लेश्या और कौनसा वेद होता है आदि ? इन सब प्रश्नोंका समाधान करके चूर्णिसूत्रकारने तीनों करणोंका स्वरूप तथा उनमें होनेवाले कार्योंका विवेचन किया है। इसके बाद पन्द्रह गाथाओंके द्वारा दर्शनमोहके उपशामककी विशेषताएं तथा सम्यग्दृष्टिका स्वभाव आदि बतलाया है। (११) दर्शनमोहकी क्षपणा-इस अधिकारके प्रारम्भमें पांच गाथाओंके द्वारा बतलाया है कि दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ कर्मभूमिया मनुष्य करता है। उसके कमसे कम तेजो लेश्या अवश्य होती है, क्षपणाका काल अन्तर्मुहूर्त होता है। दर्शनमोहकी क्षपणा होनेपर जिस भवमें क्षपणाका प्रारम्भ किया है उसके सिवाय अधिकसे अधिक तीन भव धारण करके मोक्ष हो जाता है आदि । दर्शनमोहके क्षपणके लिये भी अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणका होना आवश्यक है। अतः चूर्णिसूत्रकारने इन तीनों करणोंका विवेचन तथा उनमें होनेवाले कार्योंका दिग्दर्शन इस अधिकारमें भी विस्तारसे किया है। और बतलाया है कि जीव दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक कब होता है तथा वह मरकर कहां कहां जन्म ले सकता है ? (१२) देशविरत-इस अधिकारमें संयमासंयमलब्धिका वर्णन है। अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयके अभावसे देशचारित्रको प्राप्त करनेवाले जीवके जो विशुद्ध परिणाम होते हैं उसे संयमासंयमलब्धि कहते हैं। जो उपशम सम्यक्त्वके साथ संयमासंयमको प्राप्त करता है उसके तीनों ही करण होते हैं। किन्तु उसकी विवक्षा यहाँ नहीं की है क्योंकि उसका अन्तर्भाव सम्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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