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________________ ८३ इसका जिस अनुयोगद्वार में विस्तारसे कथन किया है उसे संक्रम अनुयोगद्वार कहते हैं । बन्ध अनुयोगद्वार में इन दोनोंका कथन किया है । बन्ध और संक्रम दोनोंकी बन्ध संज्ञा होनेका यह कारण है कि बन्धके कर्मबन्ध और कर्मबन्ध ये दो भेद हैं। नवीन बन्धको कर्मबन्ध और बंधे हुए कर्मों के परस्पर संक्रान्त होकर बंधनेको कर्मबन्ध कहते हैं । अतः दोनोंको बन्ध संज्ञा देने में कोई आपत्ति नहीं है । प्रस्तावना इस अधिकारमें एक सूत्रगाथा आती है, जिसके पूर्वार्ध द्वारा प्रकृतिबन्ध आदि चार प्रकार बन्धकी और उत्तरार्ध द्वारा प्रकृतिसंक्रम आदि चार प्रकारके संक्रमांकी सूचना की है । बन्धका वर्णन तो इस अधिकार में नहीं किया है उसे अन्यत्र से देख लेनेकी प्रेरणा की गई है, किन्तु संक्रमका वर्णन खूब विस्तारसे किया है । प्रारम्भमें संक्रमका निक्षेप करके प्रकृत में प्रकृतिसंक्रमसे प्रयोजन बतलाया है । और उसका निरूपण तीन गाथाओंके द्वारा किया है उसके पश्चात् ३२ गाथाओंसे प्रकृतिस्थान संक्रमका वर्णन किया है। एक प्रकृतिके दूसरी प्रकृतिरूप होजानेको प्रकृतिसंक्रम कहते हैं, जैसे मिथ्यात्व प्रकृतिका सम्यक्त्व और सम्यक मिथ्यात्व प्रकृतिमें संक्रम हो जाता है । और एक प्रकृतिस्थानके अन्य प्रकृतिस्थानरूप हो जानेको प्रकृतिस्थानसंक्रम कहते हैं । जैसे, मोहनीयकर्मके सत्ताईस प्रकृतिक सत्त्वस्थानका संक्रम अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले मिध्यादृष्टि में होता है । किस प्रकृतिका किस प्रकृतिरूप संक्रम होता है और किस प्रकृतिरूप संक्रम नहीं होता, तथा किस प्रकृतिस्थानका किस प्रकृतिस्थान में संक्रम होता है। और किस प्रकृतिस्थान में संक्रम नहीं होता, आदि बातोंका विस्तार से विवेचन इस अध्याय में किया गया है। यह अधिकार बहुत विस्तृत है । (६) वेदक - इस अधिकार में उदय और उदीरणाका कथन है। कर्मोंका अपने समयपर जो फलोदय होता है उसे उदय कहते हैं । और उपायविशेषसे असमय में ही उनका जो फलादय होता है उसे उदीरणा कहते हैं। चूँकि दोनों ही अवस्थाओं में कर्मफलका वेदन-अनुभवन करना पड़ता है इसलिये उदय और उदीरणा दोनोंको ही वेदक कहा जाता है । इस अधिकार में चार गाथाएँ हैं, जिनके द्वारा ग्रन्थकारने उदय उदीरणाविषयक अनेक प्रश्नोंका समवतार किया है। so चूर्णिसूत्रकार ने उनका आलम्बन लेकर विस्तार से विवेचन किया है । पहली गाथाके द्वारा प्रकृति उदय, प्रकृति उदीरणा और उनके कारण द्रव्यादिका कथन किया है। दूसरी गाथाके द्वारा स्थिति उदीरणा, अनुभाग उदीरणा, प्रदेश उदीरणा तथा उदयका कथन किया है । तीसरी गाथा द्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश विषयक भुजाकार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यका कथन किया है। अर्थात् यह बतलाया है कि कौन बहुत प्रकृतियोंकी उदीरणा करता है और कौन कम प्रकृतियोंकी उदीरणा करता है। तथा प्रति समय उदीरणा करनेवाला जीव कितने समय तक निरन्तर उदीरणा करता है, आदि। चौथी गाथाके द्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविषयक बंध, संक्रम, उदय, उदीरणा और सत्व के अल्पबहुत्वका कथन किया गया है। यह अधिकार भी विशेष विस्तृत है । (७) उपयोग – इस अधिकार में क्रोधादि कषायों के उपयोगका स्वरूप बतलाया गया है । इसमें सात गाथाएँ हैं । जिनमें बतलाया गया है कि एक जीवके एक कषायका उदय कितने काल तक रहता है ? किस जीवके कौनसी कषाय वार वार उदयमें आती है ? एक भवमें एक कषायका उदय कितनी वार होता है और एक कषायका उदय कितने भवों तक रहता है ? जितने जीव वर्तमानमें जिस कषायमें विद्यमान हैं क्या वे उतने ही पहले भी उसी कषायमें विद्यमान थे और क्या आगे भी विद्यमान रहेंगे ? आदि कषायविषयक बातोंका विवेचन इस अधिकारमें किया गया है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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