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________________ ८२ जयधवलासहित कषायप्राभृत स्थिति विभक्ति-जिसमें चौदह मार्गणाओंका आश्रय लेकर मोहनीयके अट्ठाईस भेदोंकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है उसे स्थितिविभक्ति कहते हैं। इसके मूलप्रकृतिस्थितिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्ति इस प्रकार दो भेद हैं। एक समयमें मोहनीयके जितने कर्मस्कन्ध बंधते हैं उनके समूहको मूलप्रकृति कहते हैं और इसकी स्थितिको मूलप्रकृतिस्थिति कहते हैं। तथा अलग अलग मोहनीय कर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी स्थितिको उत्तरप्रकृतिस्थिति कहते हैं। इनमेंसे मूलप्रकृतिस्थितिविभक्तिका सर्वविभक्ति आदि अनुयोगद्वारोंके द्वारा कथन किया है और उत्तर प्रकृतिस्थितिका अद्धाच्छेद आदि अनुयोगद्वारोंके द्वारा कथन किया है। (३) अनुभाग विभक्ति-कर्मों में जो अपने कार्यके करनेकी शक्ति पाई जाती है उसे अनुभाग कहते हैं। इसका विस्तारसे जिस अधिकारमें कथन किया है उसे अनुभागविभक्ति कहते हैं। इसके भी मूलप्रकृति अनुभागविभक्ति और उत्तरप्रकृति अनुभागविभक्ति ये दो भेद हैं । सामान्य । मोहनीय कमैके अनुभागका विस्तारसे जिसमें कथन किया है उसे मूलप्रकृति अनुभागविभक्ति कहते हैं । तथा मोहनीयकर्मके उत्तर भेदोंके अनुभागका विस्तारसे जिसमें कथन किया है उसे उत्तरप्रकृति अनुभागविभक्ति कहते हैं। इनमेंसे मूलप्रकृति अनुभागविभक्तिका संज्ञा आदि अनुयोगद्वारोंके द्वारा और उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्तिका संज्ञा आदि अधिकारोंमें कथन किया है। (४) प्रदेशविभक्ति-झोझाझीण-स्थित्यन्तिक-प्रदेशविभक्तिके दो भेद हैं-मूलप्रकृति प्रदेशविभक्ति और उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति । मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्तिका भागाभाग आदि अधिकारों में कथन किया है । तथा उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति का भी भागाभाग आदि अधिकारोंमें कथन किया है। झीणाझीण-किस स्थितिमें स्थित प्रदेश उत्कर्षण अपकर्षण संक्रमण और उदयके योग्य और अयोग्य हैं, इसका झीणाझीण अधिकारमें कथन किया गया है । जो प्रदेश उत्कर्षण अपकर्षण संक्रमण और उदयके योग्य हैं उन्हें झीण तथा जो उत्कर्षण अपकर्षण संक्रमण और उदयके योग्य नहीं हैं उन्हें अझीण कहा है । इस झीणाझीणका समुत्कीर्तना आदि चार अधिकारोंमें वर्णन है। स्थित्यन्तिक-स्थितिको प्राप्त होनेवाले प्रदेश स्थितिक या स्थित्यन्तिक कहलाते हैं। अतः उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त, जघन्य स्थितिको प्राप्त आदि प्रदेशांका इस अधिकारमें कथन है। इसका समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अधिकारों में कथन किया है। जो कर्म बन्धसमयसे लेकर उस कर्मकी जितनी स्थिति है उतने काल तक सत्तामें रह कर अपनी स्थितिके अन्तिम समयमें उदयमें दिखाई देता है वह उत्कष्ट स्थितिप्राप्त कर्म कहा जाता है । जो कर्म बन्धके समय जिस स्थितिमें निक्षिप्त हुआ है अनन्तर उसका उत्कर्षण या अपकर्षण होनेपर भी उसी स्थितिको प्राप्त होकर जो उदयकालमें दिखाई देता है उसे निषेकस्थितिप्राप्त कर्म कहते हैं । बन्धके समय जो कर्म जिस स्थितिमें निक्षिप्त हुआ है उत्कर्षण और अपकर्षण न होकर उसी स्थितिके रहते हुए यदि वह उदयमें आता है तो उसे अधानिषेकस्थितिप्राप्त कर्म कहते हैं । जो कर्म जिस किसी स्थितिको प्राप्त होकर उदयमें आता है उसे उदयनिषेकस्थितिप्राप्त कर्म कहते हैं। इस प्रकार इन सबका कथन इस अधिकारमें किया है। (५) बन्धक-बन्धके बन्ध और संक्रम इसप्रकार दो भेद हैं । मिथ्यात्वादि कारणांसे कर्मभावके योग्य कार्मण पुद्गलस्कन्धोंका जीवके प्रदेशांके साथ एकक्षेत्रावगाहसंबन्धको बन्ध कहते हैं । इसके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये चार भेद हैं। जिस अनुयोगद्वारमें इसका कथन है उसे बन्ध अनुयोगद्वार कहते हैं। इसप्रकार बंधे हुए कर्मोंका यथायोग्य अपने अवान्तर भेदोंमें संक्रान्त होनेको संक्रम कहते हैं। इसके प्रकृतिसंक्रम आदि अनेक भेद हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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