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________________ प्रस्तावना अगले चौदह अधिकार ये हैं स्थितिविभक्ति, अनुभागविभक्ति, प्रदेशविभक्ति-झीणाझीण-स्थित्यन्तिक, बन्धक, वेदक, उपयोग, चतुःस्थान, व्यञ्जन, दर्शनमोहोपशामना, दर्शनमोहक्षपणा, संयमासंयमलब्धि, संयमलब्धि, चारित्रमोहोपशामना, और चारित्रमोहक्षपणा। इनमें से प्रारंभके तीन अधिकारोंमें सत्त्वमें स्थित मोहनीय कर्मका, बन्धकमें मोहनीयके बन्ध और संक्रमका, वेदक और उपयोगमें मोहनीयके उदय, उदीरणा और वेदक कालका, चतुःस्थानमें चार प्रकारकी अनुभाग शक्तिका, व्यञ्जनमें क्रोधादिकके एकार्थक नामोंका मुख्यतया कथन है। शेष सात अधिकारोंका विषय उनके नामोंसे ही स्पष्ट हो जाता है। संक्षेपमें इन अधिकारोंका बँटवारा किया जाय तो यह कहना होगा कि प्रारंभके आठ अधिकारोंमें संसारके कारणभूत मोहनीय कर्मकी विविध दशाओंका वर्णन है । अन्तिम सात अधिकारोंमें आत्मपरिणामोंके विकाशसे शिथिल होते हुए मोहनीय कर्मकी जो विविध दशाएं होती हैं उनका वर्णन है। (२) स्थितिविभक्ति-जब कोई एक विवक्षित पदार्थ किसी दूसरे पदार्थको प्रावृत करता है या उसकी शक्तिका घात करता है तब साधारणतया आवरण करनेवाले पदार्थमें आवरण करनेका स्वभाव, आवरण करनेका काल, आवरण करनेकी शक्तिका हीनाधिकभाव और श्रावरण करनेवाले पदार्थका परिमाण ये चार अवस्थाएं एक साथ प्रकट होती हैं । यह हम बता ही आये हैं कि आत्मा आश्रियमाण है और कर्म आवरण, अतः कर्मके द्वारा आत्माके आवृत होनेपर कर्मकी भी उक्त चार अवस्थाएं होती हैं जो कि आवरण करनेके पहले समयमें हो सनिश्चित हो जाती हैं। आगममें इनको प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध बन्ध कहा है। इसप्रकार कर्मकी चार अवस्थाएं हैं फिर भी गुणधर भट्टारकने प्रकृतिबन्धको स्वतन्त्र अधिकार नहीं माना है, क्योंकि प्रकृति, स्थिति और अनुभागका अविनाभावी है, अतः उसका उक्त अधिकारोंमें अन्तर्भाव कर लिया है। इसप्रकार यद्यपि दूसरे अधिकारका नाम स्थितिविभक्ति है पर उसमें प्रकृतिविभक्ति और स्थितिविभक्ति दोनोंका वर्णन किया है। प्रकृतिविभक्ति- प्रकृति शब्दका अर्थ ऊपर लिख ही आये हैं। विभक्ति शब्दका अर्थ विभाग है। यह विभक्ति नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, गणना, संस्थान और भावके भेदसे अनेक प्रकार की है। पर प्रकृतमें द्रव्यविभक्तिके तद्वयतिरिक्त भेदका जेा कर्मविभक्ति भेद है वह लिया गया है। यद्यपि इस कषायप्राभृतमें एक मोहनीय कर्मका ही विशद वर्णन है पर वह आठ कर्मोमेंसे एक है अतः उसके साथ विभक्ति शब्दके लगाने में कोई आपत्ति नहीं है। मोहनीयका स्वभाव सम्यक्त्व और चारित्रका विनाश करना है । इस प्रकृति विभक्तिके मूलप्रकृतिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिविभक्ति ये दो भेद हैं। इनमेंसे मूलप्रकृतिविभक्तिका सादि आदि अनुयोगद्वारोंके द्वारा विवेचन किया है। उत्तर प्रकृतिविभक्तिके एकैक उत्तरप्रकृतिविभक्ति और प्रकृतिस्थान उत्तरप्रकृतिविभक्ति ये दो भेद हैं। जहाँ मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंका पृथक पृथक कथन किया है उसे एकैक उत्तरप्रकृतिविभक्ति कहते हैं। तथा जहां मोहनीयके अट्ठाईस, सत्ताईस आदि प्रकृति रूप सत्त्वस्थानोंका कथन किया है उसे प्रकृतिस्थान उत्तरप्रकृतिविभक्ति कहते हैं। इनमेंसे एकैकउत्तरप्रकृतिविभक्तिका समुत्कीर्तना आदि अनुयोगद्वारोंके द्वारा और प्रकृतिस्थान उत्तरप्रकृतिविभक्तिका स्थानसमुत्कीर्तना आदिके द्वारा कथन किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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