SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहित कषायप्रामृत ३. मङ्गलवाद भारतीय वाङमयमें शास्त्रके आदिमें मंगल करनेके अनेक प्रयोजन तथा हेतु पाये जाते हैं। इस विषयमें वैदिक दर्शनोंका मूल आधार तो यह मालूम होता है कि मंगल करना एक वेदविहित क्रिया है, और जब वह श्रुतिविहित है तो उसे करना ही चाहिए। श्रुतियोंके सद्भावमें जैसे प्रत्यक्ष एक प्रमाण है उसी तरह निर्विवाद शिष्टाचार भी उसका एक अन्यतम साधक होता है। जिस कार्यको शिष्टजन निर्विवाद रूपसे करते चले आए हों वह निर्मूलक तो नहीं हो सकता। अतः इस निर्विवाद शिष्टाचारसे अनुमान होता है कि इस मंगलकार्यको प्रतिपादन करनेवाला कोई वेदवाक्य अवश्य रहा है । भले ही आज उपलब्ध वेद भागमें वह न मिलता हो। इस तरह जब मंगल करना श्रुतिविहित है, तो "श्रौतात् साङ्गात् कर्मणः फलावश्यम्भावनियमात अर्थात् पूर्ण विधिविधानसे किये गये वैदिक कर्मों का फल अवश्य होता है।" इस नियमके अनुसार वह सफल भी अवश्य ही होगा। किसी भी ग्रन्थकारको सर्व प्रथम यही इच्छा होती है कि मेरा यह प्रारम्भ किया हुआ ग्रन्थ निर्विघ्न समाप्त हो जाय। अतः मंगल ग्रन्थपरिसमाप्तिकी कामनासे किए जानेके कारण काम्यकर्म है । जिस तरह अग्निष्टोम यज्ञ स्वर्गकी कामनासे किया जाता है तथा यज्ञ और स्वर्गमें कार्यकारणभावके निवोहके लिए अदृष्ट अथात् पुण्यको द्वार माना जाता है उसी तरह मंगल और ग्रन्थ परिसमाप्तिमें कार्यकारणभावकी श्रृंखला ठीक बैठानेको लिए विघ्नध्वंसको द्वार मानते हैं। तात्पर्य यह है कि जैसे यज्ञ पुण्यके द्वारा स्वर्गमें कारण होता है उसी तरह मंगल विघ्नध्वंसके द्वारा ग्रन्थकी समाप्तिका कारण होता है। जहाँ मंगल होने पर भी ग्रन्थपरिसमाप्ति नहीं देखी जाती वहाँ अगत्या यही मानना पड़ता है कि मंगल करने में कुछ न्यूनता रही होगी। और जहाँ मंगल न करने पर भी ग्रन्थपरिसमाप्ति देखी जाती है। वहाँ यही मानना चाहिए कि या तो वहाँ कायिक या मानस मंगल किया गया होगा या फिर जन्मान्तरीय मंगल कारण रहा है। विघ्नध्वंस स्वयं कार्य नहीं है, क्योंकि पुरुषार्थ मात्र विघ्नध्वंसके लिए नहीं किया है किन्तु उसका लक्ष्य है ग्रन्थपरिसमाप्ति । एक पक्ष तो यह भी उपलब्ध होता है, जिसे नवीनोंका पक्ष कहा गया है कि मंगलका साक्षात् फल विघ्नध्वंस ही है, ग्रन्थकी परिसमाप्ति तो बुद्धि प्रतिभा अध्यवसाय आदि कारणकलापसे होती है। ___मंगल करना और उसे ग्रन्थमें निबद्ध करना ये दो वस्तुएं हैं। प्रत्येक शिष्ट ग्रन्थकार सदाचारपरिपालनको दृष्टिसे मनोयोगपूर्वक मंगल करता ही है भले ही वह मंगल कायिक हो या वाचिक । उसे शास्त्रमें निबद्ध करनेका मूल प्रयोजन तो शिष्योंको उसकी शिक्षा देना है। अर्थात् शिष्य परिवार भी कार्यारम्भमें मंगल करके मंगलकी परम्पराको चालू रखें। इन मंगलोंमें मानस मंगल ही मुख्य है। इसके रहने पर कायिक और वाचनिक मंगलके अभावमें भी फलकी प्राप्ति हो जाती है पर मानस मंगलके अभावमें या उसकी अपूर्णतामें कायिक और वाचनिक मंगल रहने पर भी फल प्राप्ति नही होती। तात्पर्य यह है कि मानस (१) सांख्यसू० ५।११ (२) "प्रत्यक्षमिव अविगीतशिष्टाचारोऽपि श्रुतिसद्भावे प्रमाणमेव निर्मूलस्य च शिष्टाचारस्यासंभवात् । अप्रमाणमूलकस्य च प्रामाणिकविगानविरहानुपपत्तेः ।" न्याय० ता०प० १० २६ । ( ३ ) वैशे० उप० १०२। ( ४ ) मुक्तावली दिनकरी प०६। वैशे० उप० पृ० २ । तर्कदी० पू० २। (५) मुक्तावली पृ० ६ । (६) किरणावली प० ३ । न्यायवा ता० टी० पृ० ३। (७) प्रश० म्यो० पृ० २०७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy