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________________ ३६ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ९–१, १८. उप्पज्जदि, तस्स जीवसहावत्तादो फलाभावा । ण सादावेदणीयाभावो वि, दुक्खुवसमउसुदव्वसंपादणे' तस्स वावारादो | एवं संते सादावेदणीयस्स पोग्गलविवाइत्तं होइ त्ति णासंकणिज्जं, दुक्खुवसमेणुप्पण्णसुवत्थियकणस्स दुक्खाविणाभाविस्स उवयारेणेव लद्धसुहसण्णस्स जीवादो अपुथभूदस्स हेदुत्तणेण सुत्ते तस्स जीव विवाइत्तसुहदुतावदेसादो | तो वि जीव- पोग्गलविवाइतं सादावेदणीयस्स पावेदि त्ति चे ण, तदो । तहोवएसो णत्थि त्ति चे ण, जीवस्स अत्थित्तण्णहाणुववत्तीड़ो तहोवदेसत्थित्तसिद्धीए | ण च सुह- दुक्खहे उदव्य संपादयमण्णं कम्ममत्थि त्ति अणुवलंभादो | जस्सोदएण जीवो सुहं व दुक्ख व दुविहमणुभवइ । तरसोदयक्खण दु सुह- दुक्खविवज्जिओ होइ ॥ ७ ॥ ण च एदीए गाहाए सह विरोहो, सादावेदणीयादो उप्पण्णसुहाभावं पेक्खिऊण है, क्योंकि, वह जीवका स्वभाव है, और इसीलिये वह कर्मका फल नहीं है । सुखको जीवका स्वभाव माननेपर सातावेदनीय कर्मका अभाव भी प्राप्त नहीं होता, क्योंकि, दुःख उपशमन के कारणभूत सुद्रव्योंके सम्पादन में सातावेदनीय कर्मका व्यापार होता है । इस व्यवस्था के माननेपर सातावेदनीय प्रकृतिके पुद्गलविपाकित्व प्राप्त होगा, ऐसी भी आशंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि, दुःखके उपशमसे उत्पन्न हुए, दुःखके अविनाभावी उपचार से ही सुख संज्ञाको प्राप्त और जीवसे अपृथग्भूत ऐसे स्वास्थ्य के कणका हेतु होने से सूत्र में सातावेदनीय कर्मके जीवविपाकित्वका और सुख हेतुत्वका उपदेश दिया गया है । यदि कहा जाय कि उपर्युक्त व्यवस्थानुसार तो सातावेदनीय कर्मके जीवविपाकीपना और पुद्गलविपाकीपना प्राप्त होता है, सो भी कोई दोष नहीं, क्योंकि, यह बात हमें इष्ट है । यदि कहा जावे कि उक्त प्रकारका उपदेश प्राप्त नहीं है, सो भी नहीं, क्योंकि, जीवका अस्तित्व अन्यथा वन नहीं सकता है, इसलिये उस प्रकारके उपदेशके अस्तित्वकी सिद्धि हो जाती है । सुख और दुखके कारणभूत द्रव्योंका सम्पादन करनेवाला दूसरा कोई कर्म नहीं है, क्योंकि वैसा कोई कर्म पाया नहीं जाता । जिसके उदयसे जीव सुख और दुख, इन दोनोंका अनुभव करता है, उसके उदयका क्षय होने से वह सुख और दुखसे रहित हो जाता है ॥ ७ ॥ पूर्वोक्त व्यवस्था माननेपर इस गाथाके साथ विरोध भी नहीं आता है, क्योंकि, सातावेदनीय कर्मके उदय से उत्पन्न होने वाले सुखके अभावकी अपेक्षा उपर्युक्त गाथामें १ आप्रतौ ' - हेउव्वसंपादणे : कप्रतौ ' हेउदव्वसंपादणे ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' तस्स वावारादो एवं संते सादावेदणीयस्स पोग्गलविवाहचं होइ चि णासंकणिज्जं ' इति पाठः । मप्रतौ तु स्वीकृतपाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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