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१, ९-१, १४.] चूलियाए पगडिसमुक्कित्तणे आभिणिबोहियणाणावरणीय कहिं पि ओग्गहो ईहा अवाओ धारणा चेदि चत्तारि वि होति ।
तत्र बहु-बहुविध-क्षिप्रानिःसृतानुक्तधुवसेतरभेदेनैकैको द्वादशविधः' । तत्थ बहूणमेगवारेण ग्गहणं बहुतग्गहो । ण च एसो अप्पसिद्धो, अक्कमेण जोग्गदेसहिदपंचण्हमंगुलीणमुवलंमा । एक्कस्सेव वत्थुवलंभो' एयावग्गहो । अणेयंतवत्थुवलंभा एयावग्गहो णस्थि । अह अरिध, एयंतसिद्धी पसज्जदे एयंतग्गाहयपमाणस्सुवलंभा इदि चे, ण एस दोसो, एयवत्थुग्गाहओ अवबोहो एयावग्गहो उच्चदि । ण च विहि-पडिसेहधम्माणं वत्थुत्तमत्थि जेण तत्थ अणेयावरगहो होज्ज ? किंतु विहि-पडिसेहारमेयं वत्थ, तस्स उवलंभो एयावग्गहो । अणेयवत्थुविसओ अवबोहो अणेयावग्गहो । पडिहासो पुण सव्यो अणेयंतविसओ चेय, विहि-पडिसेहाणमण्णदरस्सेव अणुवलंभा । बहुपयाराणं
और कहीं पर अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा, ये चारों ही ज्ञान होते हैं ।
उनमें एक एक, अर्थात् अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-बहु, बहुविध, क्षिप्र अनिःसृत, अनुक्त, ध्रुव और इनके प्रतिपक्षी अर्थात् एक, एकविध, अक्षिप्र, निःसृत, उक्त और अध्रुव, इनके भेदसे बारह प्रकारका है। उनमें बहुत वस्तुओंका एक साथ ग्रहण करना बहु-अवग्रह है । इस प्रकारका यह बहु-अवग्रह अप्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, योग्य देशमें स्थित पांचों अंगुलियोंका एक साथ उपलम्भ पाया जाता है। एक ही वस्तुके उपलम्भको एक-अवग्रह कहते हैं।
शंका-अनेक धर्मात्मक वस्तुओंके पाये जानेसे एक-अवग्रह नहीं होता है। यदि होता है तो एक धर्मात्मक वस्तुकी सिद्धि प्राप्त होती है, क्योंकि, एक धर्मात्मक वस्तुका ग्रहण करनेवाला प्रमाण पाया जाता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, एक वस्तुका ग्रहण करनेवाला ज्ञान एक-अवग्रह कहलाता है। तथा विधि और प्रतिषेध धर्मोके वस्तुपना नहीं है, जिससे उनमें अनेक-अवग्रह हो सके ? किन्तु विधि और प्रतिषेध धर्मोंके समुदायात्मक एक वस्तु होती है; उस प्रकारकी वस्तुके उपलम्भको एक-अवग्रह कहते हैं । अनेक वस्तु-विषयक ज्ञानको अनेक-अवग्रह कहते हैं। किन्तु प्रतिभास तो सर्व ही अनेक धर्मीका विषय करनेवाला होता है, क्योंकि, विधि और प्रतिषेध, इन दोनोंमेंसे किसी एक ही धर्मका अनुपलम्भ है, अर्थात् इन दोनोंमेंसे एकको छोड़कर दूसरा नहीं पाया जाता, दोनों ही प्रधान-अप्रधानरूपसे साथ साथ पाये जाते हैं।
१ बहुबहुविधक्षिप्रानिःसृतानुक्तधुवाणां सेतराणाम् ॥ त. सू. १, १६.
२ अ-प्रतौ । एक्कस्सेव वहुवलंभी '; आ-प्रतौ 'एक्कस्से ववलंभो'; क-प्रतौ — एककस्से वहुबलंभो' इति पाठः।
३ प्रतिधु · विहि-पडिसेहं धम्माणं' इति पाठः ।
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