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१, ९-१, ५. ]
चूलियाए पगडिसमुत्तिणे णाणावरणीयं
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अक्खरस्स अनंतभाओ णिच्चुग्घाडियओ' ' इदि सुत्ताणुकूलत्तादो वा । ण सव्वावयहि णाणस्सुवलभो होदु त्ति वोत्तुं जुतं, आवरिदणाणभागाणमुवलंभविरोहा । आवरणाणभागा सावरणे जीवे किमत्थि आहो णत्थि त्ति । जदि अत्थि, ण ते आवरिदा, सव्वप्पणा संताणमावरिदत्तविरोहा । अह णत्थि, तो वि णावरणं, आवरिज्जमाणाणमभावे आवरणस्सत्थित्तविरोहा इदि ? एत्थ परिहारो उच्चदे - दव्वट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे आवरिदणाणभागा सावरणे वि जीवे अस्थि, जीवदव्वादो पुधभूदणाणाभावा, विज्जमाणणाणभागादो आवरिदणाणभागाणमभेदादो वा । आवरिदाणावरिदाणं कथमेगत्तमिदि चे ण, राहु-मेहेहि आवरिदाणावारिदसु
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समाधान- ज्ञानका विनाश नहीं माननेपर यदि सर्व जीवोंके ज्ञानका अस्तित्व प्राप्त होता है तो होने दो, उसमें कोई विरोध नहीं है । अथवा " अक्षरका अनन्तवां भाग नित्य-उद्घाटित अर्थात् आवरणरहित रहता है ' इस सूत्र के अनुकूल होनेसे सर्व जीवों के ज्ञानका अस्तित्व सिद्ध है ।
शंका- यदि सर्व जीवोंके ज्ञानका अस्तित्व सिद्ध है, तो फिर सर्व अवयवोंके साथ ज्ञानका उपलम्भ होना चाहिए ? अर्थात् ज्ञानके सभी भागोंका या पूर्ण ज्ञानका सद्भाव पाया जाना चाहिए ?
समाधान - यह कहना उपयुक्त नहीं, क्योंकि, आवरण किये गये ज्ञानके भागोंका उपलम्भ माननेमें विरोध आता है ।
शंका- आवरणयुक्त जीवमें आवरण किये गये ज्ञानके भाग क्या हैं, अथवा नहीं हैं ? यदि हैं, तो वे आवरित नहीं कहे जा सकते, क्योंकि, सम्पूर्णरूपसे विद्यमान भागों के आवरण माननेमें विरोध आता है । यदि नहीं हैं, तो उनका आवरण नहीं माना जा सकता, क्योंकि, आत्रियमाण अर्थात् आवरण किये जाने योग्य पदार्थोंके अभाव में आवरणके अस्तित्वका विरोध है ?
समाधान- यहां उक्त आशंकाका परिहार करते हैं- द्रव्यार्थिकनयके अवलम्बन करनेपर आचरण किये गये ज्ञानके अंश सावरण जीवमें भी होते हैं, क्योंकि, जीवद्रव्य से पृथग्भूत ज्ञानका अभाव है, अथवा विद्यमान ज्ञानके अंशसे आवरण किये गये ज्ञानके अंशोंका कोई भेद नहीं है ।
शंका- ज्ञानके आवरण किए गए और आवरण नहीं किए गए अंशोंके एकता कैसे हो सकती है ?
समाधान — नहीं, क्योंकि, राहु और मेघोंके द्वारा सूर्यमंडल और चन्द्रमंडलके
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१ हवदि हु सव्वजहणं णिच्चुग्धाडं णिरावरणं । गो. जी. ३२०.
२ प्रतिषु संताणमुवरिदत्तविरोहा ' इति पाठः ।
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