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परिशिष्ट बादर कायका निरोध कहा है, और ज्ञानार्णवके समान सूक्ष्म मनसे पूर्व सूक्ष्म वचनके निरोधका कथन है। पर पंचसंग्रह टीकामें एक और मतान्तरका उल्लेख है जिसके अनुसार बादर कायका - निरोध बादर काय द्वारा ही होता है, जो धवलाके समान है।
__ पृ. ४१७ पर अयोगकेवलीके द्विचरम समयमें ७३ व चरम समयमें शेष १२ प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति कही गई है। किन्तु इस विषयमें मतभेद रहा है । प्रथम भाग, सत्प्ररूपणाके सूत्र नं. २७ की टीकामें धवलाकारने द्विचरम समयमें ७२ व अन्तिम समयमें १३ प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति कहकर दूसरे मतका भी उल्लेख किया है । उस स्थलपर तथा प्रस्तुत स्थलपर टिप्पणियोंमें इस विषयपर भिन्न भिन्न मतवाले दिगम्बर व श्वेताम्बर आचार्योंके मतोंका उल्लेख किया जा चुका है। शिवार्यकृत भगवती-आराधनामें ७३ व १२ प्रकृतियोंकी व्युच्छित्तिवाला मत पाया जाता है, जैसा कि उस ग्रन्थकी निम्न गाथाओंसे प्रकट हमाणुसगदि तज्जादि पज्जत्तादिज्जसुभगजसकित्तिं । अण्णदरवेदणीयं तसबादरमुच्चगोदं च ॥ २११७॥ मणुसाउगं च वेदेदि अजोगी होदूण तक्कालं । तित्थयरणामसहिदो जातो जो वेदि तित्थयरो ॥ २११८॥ सो तेण पंचमत्ताकालेण खवेदि चरिमझाणेण । अणुदिण्णाओ दुचरिमसमए सब्वाउ पयडीओ ॥ २१२० ॥ चरिमसमयम्मि तो सो खवेदि वेदिजमाणपयडीओ । बारस तित्थयरजिणो एक्कारस सेससव्वण्हू ॥२१२१॥
किन्तु शुभचन्द्रकृत ज्ञाणार्णवके ४२ वें प्रकरणमें ७२ व १३ प्रकृतियोंकी व्युच्छिात्तवाला मत पाया जाता है । यथा
द्वासप्ततिर्विलीयन्ते कर्मप्रकृतयो द्रुतम् । उपान्त्ये देवदेवस्य मुक्तिश्रीप्रतिबन्धकाः ॥ ५२ ॥ विलयं वीतरागस्य पुनर्यान्ति त्रयोदश । चरमे समये सद्यः पर्यन्ते या व्यवस्थिताः ॥ ५४॥
पृ. ४४२ पर सूत्र ६४ और ६५ के बीच एक सूत्र छूटा हुआ प्रतीत होता है जो इस प्रकार होना चाहिये
_' केइं सासणसम्मत्तेण अधिगदा सासणसम्मत्तेण णीति' यद्यपि यह हमारी प्रतियोंमें पाया नहीं गया, पर पूर्वापर प्रसंगको देखते हुए कोई कारण नहीं है कि प्रकृत जीव सासादन गुणस्थान सहित आकर सासादन गुणस्थान सहित निर्गमन न कर सकें।
(पृ. ४९०, पंक्ति ८ में ' तार्किकद्वय ' से संभवतः नैयायिक और वैशेषिक, इन दोनोंसे अभिप्राय है।
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