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________________ ४७४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-९, १६४. एकं हि चेव देवगदिं गच्छति ॥ १६४ ॥ एत्थ चत्तारि गदीओ गच्छंति त्ति वत्तव्वं, मणुससम्माइट्ठीणं चउग्गइगमणुवलंभादो । तं जहा- देवगदि ताव मणुससम्माइट्ठिणो गच्छंति चेव, एत्थेव सुत्ते उत्तत्तादो। णिरयगदि पि गच्छंति, ‘णेरइया सम्मत्तेण अधिगदा णियमा सम्मत्तेण चेव णीति' ति सुत्तवयणादो । ण तिरिक्खसम्माइट्ठिणो णिरयगदिमधिगच्छंति, तत्थ दंसणमोहणीयस्स खवणाभावादो खइयसम्मत्ताभावा । ण तत्थतणवेदगसम्माइट्ठिणो णिरयगदिमधिगच्छंति, तेसिं मरणकाले णिरयाउअसंतस्साभावादो । ण देव-णेरइयसम्माइट्ठिणो णिरयगदिमाधिगच्छंति, जिणाणाभावादो । तम्हा परिसेसादो सम्मादिट्टिणो मणुसा चेव णिरयगदिमधिगच्छंति त्ति सिद्धं । तिरिक्खगदि (पि गच्छंति), 'सम्मत्तेण संख्यातवर्षायुष्क सम्यग्दृष्टि मनुष्य एकमात्र देवगतिको ही जाते हैं ॥१६४॥ शंका-यहांपर 'संख्यातवर्षायुष्क सम्यग्दृष्टि मनुष्य चारों गतियोंको जाते हैं' ऐसा कहना चाहिये, क्योंकि सम्यग्दृष्टि मनुष्योंका चारों गतियोंमें गमन पाया जाता हैं। वह इस प्रकार है- सम्यग्दृष्टि मनुष्य देवगतिको तो जाते ही हैं, क्योंकि यह बात प्रस्तुत सूत्रमें ही कही गई है। और सम्यग्दृष्टि मनुष्य नरकगतिको भी जाते हैं, क्योंकि 'नारकी सम्यक्त्वसे नरकमें प्रवेश करके नियमसे सम्यक्त्व सहित ही वहांसे निकलते हैं ' ऐसा सूत्रका वचन है । तिर्यंच सम्यग्दृष्टि जीव तो नरकगतिको जाते नहीं हैं, क्योंकि उनमें दर्शनमोहनीयके क्षपणका अभाव होनेसे क्षायिक सम्यक्त्वका अभाव है। और न तिर्यंचगतिसंबंधी वेदकसम्यग्दृष्टि नरकगतिको जाते हैं, क्योंकि उनके मरणकालमें नरकायु कर्मकी सत्ताका अभाव होता है। देव और नारकी सम्यग्दृष्टि नरकगतिको जाते नहीं हैं, क्योंकि ऐसा जिन भगवान्का उपदेश नहीं है । इसलिये पारिशेष न्यायसे सम्यग्दृष्टि मनुष्य ही नरकगतिको जाते हैं यह बात सिद्ध हुई । सम्यग्दृष्टि मनुष्य तिर्यचगतिको भी जाते हैं, क्योंकि 'तिर्यचगतिको सम्यक्त्व सहित जानेवाले १ एगंतपंडिए ण मंते, मणुस्से किं नेर० पकरेइ जाव देवाउय किच्चा देवलोएमु उवव० ? गोयमा, एगतपडिए ण मणुस्से आउयं सिय पकरेइ, सिय नो पकरेइ । जइ पकरेइ नो नेरइया० पकरेइ, नो तिरि०, नो मणु, देवाउयं पकरेइ | xxx बालपंडिए णं भंते, मणुस्से किं नेरइयाउयं पकरेइ जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ ? गोयमा, नो नेरइयाउयं पकरेइ जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ, से केणटेणं जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ ? गोयमा, बालपंडिए णं मणुसे तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आयरियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा निसम्म देसं उवरमइ, देसं नो उवरमइ, देसं पच्चक्खाइ, देसं णो पच्चक्खाइ। से तेणटेणं देसोवरमदेसपच्चक्खाणेणं नो नेरइयाउयं पकरेइ जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ । से तेणटेणं जाव देवेसु उववज्जइ। व्याख्याप्रज्ञप्ति १,८,६५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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