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________________ ४५६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-९, १०९. सुगममेदं । णिरएसु गच्छंता पढमाए पुढवीए णेरइएसु गच्छंति ॥१०९॥ कुदो ? हेट्ठिमणेरइएसु उत्पत्तिणिमित्तपरिणामाभावा । तिरिक्ख-मणुस्सेसु गच्छंता सव्वतिरिक्ख-मणुस्सेसु गच्छंति, णो असंखेज्जवासाउएसु गच्छंति ॥ ११० ॥ कुदो ? असण्णीसु दाण-दाणाणुमोदाणमभावादो । देवेसु गच्छंता भवणवासिय वाणवेंतरदेवेसु गच्छंति ॥१११॥ कुदो ? असण्णीणं तत्तो उवरिमदेवेसु उप्पत्तिणिमित्तपरिणामाभावा । यह सूत्र सुगम है। नरकोंमें जानेवाले उपर्युक्त तिर्यंच प्रथम पृथिवीके नारकी जीवोंमें जाते हैं ।। १.९॥ क्योंकि, पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंझी पर्याप्तक जीवोंमें प्रथम पृथिवीसे नीचे द्वितीयादि पृथिवियोंके नारकियों में उत्पन्न होनेके निमित्तभूत परिणामोंका अभाव पाया जाता है। तिर्यंच और मनुष्योंमें जानेवाले उपर्युक्त तिर्यंच सभी तिर्यंच और मनुष्योंमें जाते हैं, किन्तु असंख्यात वर्षकी आयुवाले तियंच और मनुष्योंमें नहीं जाते ॥११॥ क्योंकि, असंशी जीवोंमें दान और दानके अनुमोदनका अभाव है। देवोंमें जानेवाले उपर्युक्त तिर्यंच जीव भवनवासी और वानव्यन्तर देवोंमें जाते हैं ॥१११॥ क्योंकि, असंज्ञी जीवोंमें भवनवासी और वानव्यन्तर देवोंसे ऊपरके देवोंमें उत्पत्तिके निमित्तभूत परिणामोंका अभाव पाया जाता है । १ पटमधरंतमसण्णी। ति. प. २, २८४. प्रथमायामसंज्ञिन उत्पद्यन्ते । त. रा. ३, ६. घर्मामसंनिनो यान्ति । तत्त्वार्थसार २, १६६. २ सण्णि-असण्णी जीवा मिच्छाभावेण संजुदा केई । जायंति भावणेसुं दंसणसुद्धा ण कइया वि ॥ ति.प. ३, २००. तैयग्योनेषु असंज्ञिनः पर्याप्ताः पंचेन्द्रियाः संख्येयवर्षायुषः अल्पशुभपरिणामवशेन पुण्यबंधमनुभूय भवनवासिषु व्यन्तरेषु च उत्पद्यन्ते । त. रा. ४, २१. ये मिथ्यादृष्टयो जीवाः संझिनो संझिनोऽथवा । व्यन्तरास्ते प्रजायन्ते तथा भवनवासिनः॥ तत्त्वार्थसार २, १६२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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