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________________ ४५४ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-९, १००. सत्तमाए पुढवीए णेरड्या सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी अप्पप्पणो गुणेण णिरयादो णो उव्वट्टिति॥१०॥ कुदो ? सहावदो। अतिरिक्खा सण्णी मिच्छाइट्टी पंचिंदियपज्जत्ता संखेज्जवासाउआ तिरिक्खा तिरिक्खेहि कालगदसमाणा कदि गदीओ गच्छंति?॥१०१॥ ओवयारियतिरिक्खपडिसेहटुं विदियतिरिक्खगहणं । तिरिक्खेहि तिरिक्खपज्जाएहि, कालगदसमाणा विणट्ठा संता त्ति घेत्तव्यं । सेस सुगमं । __ चत्तारि गदीओ गच्छंति णिरयगदि तिरिक्खगदि मणुसगदिं देवगदिं चेदि ॥ १०२॥ सुगममेदं । णिरएसु गच्छंता सव्वणिरएसु गच्छंति ॥ १०३ ॥ सातवीं पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीव अपने अपने गुणस्थान सहित नरकसे नहीं निकलते ॥ १० ॥ क्योंकि, ऐसा उनका स्वभाव है। तिर्यंच संज्ञी मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय पर्याप्त संख्यातवर्षायुवाले तियच जीव तियंचपर्यायोंसे मरण करके कितनी गतियोंमें जाते हैं ? ॥१०१॥ औपचारिक तिर्यंचोंके प्रतिषेधके लिये दूसरी वार तिर्यच शब्दका ग्रहण किया गया है। 'तिर्यंचोंसे' का अर्थ है 'तिर्यंचपर्यायोंसे', और 'कालगतसमान' का अर्थ है 'विनष्ट हुए' ऐसा ग्रहण करना चाहिये। शेष सूत्रार्थ सुगम है । उपर्युक्त तिर्यच जीव चारों गतियोंमें गमन करते हैं- नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति ॥ १०२॥ यह सूत्र सुगम है। नरकोंमें जानेवाले उपर्युक्त तिर्यंच जीव सभी अर्थात् सातों नरकोंमें जाते हैं ।। १०३॥ १ अप्रतौ — संखेन्जवासाउअ' हति पाठः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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