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________________ ३९. छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-८, १६. माणस्स तदियकिट्टीदो मायाए पढमं गच्छदि । मायाए पढमादो किट्टीदो पदेसग्गं मायाए विदियं तदियं च लोभस्स पढम किडिं च गच्छदि । मायाए विदियादो किट्टीदो पदेसग्गं मायाए तदियं लोभस्स पढमं च गच्छदि । मायाए तदियादो किट्टीदो लोभस्स पढमं चैव गच्छदि । लोभस्स पढमादो किट्टीदो पदेसग्गं लोभस्स विदियं तदियं च गच्छदि । लोभस्स विदियादो किट्टीदो पदेसग्गं लोभस्स तदियं चेत्र गच्छदि। जहा कोधस्स पढमकिट्टि वेदयमाणो चदुण्हं कसायाणं पढमकिडीओ बंधदि तहा कोधस्स विदियकिट्टि वेदयमाणो चदुहं कसायाणं विदियकिट्टीओ किं बंधदि उदाहो ण बंधदि त्ति ? वुच्चदे- जस्स कसायस्स जं किट्टि वेदयदि तस्स कसायस्स तं किट्टि बंधदि । सेसाणं कसायाणं पढमकिट्टीओ बंधदि । कोधविदियकिट्टि पढमसमयवेदगस्स एक्कारससु संगहकिट्टीसु अंतरकिट्टीणमप्पाबहुअं वत्तइस्सामो । तं जहा- सव्वत्थोवाओ माणस्त पढमाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ मानकी तृतीय कृप्टिसे मायाकी प्रथम कृष्टिको प्राप्त होता है। मायाकी प्रथम कृष्टिसे प्रदेशाग्र मायाकी द्वितीय और तृतीय तथा लोभकी प्रथम कृष्टिको भी प्राप्त होता है। मायाकी द्वितीय कृष्टिसे प्रदेशाग्र मायाकी तृतीय और लोभकी प्रथम कृष्टिको प्राप्त होता है । मायाकी तृतीय कृष्टिसे प्रदेशाग्र लोभकी प्रथम कृष्टिको ही प्राप्त होता है। लोभकी प्रथम कृष्टिसे प्रदेशाग्र लोभकी द्वितीय और तृतीय कृष्टिको प्राप्त होता है । लोभकी द्वितीय कृष्टिसे प्रदेशाग्र लोभकी तृतीय कृष्टिको ही प्राप्त होता है। शंका-जिस प्रकार क्रोधकी प्रथम कृष्टिका वेदन करनेवाला चार कषायोंकी प्रथम कृष्टियोको बांधता है, उसी प्रकार क्रोधकी द्वितीय कृष्टिका वेदन करनेवाला चार कषायोंकी द्वितीय कृष्टियोंको क्या बांधता है अथवा नहीं बांधता है ? समाधान --जिस कषायकी जिस कृष्टिको भोगता है उस कषायकी उस कृष्टिको बांधता है, शेष कषायोंकी प्रथम कृष्टियोंको बांधता है।। क्रोधकी द्वितीय कृष्टिके प्रथम समय वेदककी ग्यारह संग्रह कृष्टियों में अन्तरकृष्टियोंके अल्पबहुत्वको कहते हैं। वह इस प्रकार है-मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें १ कोहस्स विदियसंगहकिट्टी वेदंतयस्स संकमणं । सट्ठाणे तदियोत्ति य तदणंतरहेहिमस्स पढमं च ॥ पढमो विदिये तदिये हेहिमपढमे च विदियगो तदिये । हेछिमपटमे तदियो हेडिमपटमे च संकमदि॥ लब्धि. ५४५-५४६. २ प्रतिषु — पटमकिट्टीदो' इति पाठः। ३ जस्स कसायस्स झं किहि वेदयदि तस्स तं चेव। सेसाण कसायाणं पढमं किटिं तु बंधदि हु॥ लब्धि. ५४८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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