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________________ १, ९-८, १६.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए किट्टीवेदणं [३८७ जाओ संकामिज्जमाणयादो पदेसग्गादो अपुवाओ किट्टीओ णिव्वत्तिज्जति ताओ दुसु ओगासेसु । तं जहा- किट्टी-अंतरेसु च संगहकिट्टी-अंतरेसु च । जाओ संगहकिट्टिअंतरेसु ताओ थोवाओ, जाओ किट्टी-अंतरेसु ताओ असंखेज्जगुणाओ'। जाओ संगहकिट्टी-अंतरेसु तासिं जहा किट्टीकरणे अपुव्याणं णिव्वत्तिज्जमाणियाणं किहीणं विधी तहा कायव्यो । जाओ किट्टी-अंतरेसु तासिं जहा बज्झमाणएण पदेसग्गेण अपुव्वाणं णिव्वत्तिज्जमाणियाणं किट्टीणं विधी तहा कायव्यो। णवरि थोवयराणि किट्टीअंतराणि गंतूण संछुब्भमाणपदेसग्गेण अपुवाओ किट्टीओ णिव्वत्तेदि । ताणि किट्टी-अंतराणि पगणणादो पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागों'। पढमसमयकिटीवेदगस्स जा कोधपढमकिट्टी तिस्से असंखेज्जदिभागो अणुसमयं विणासिज्जदि । जाओ किट्टीओ पढमसमए विणासिज्जंति ताओ बहुगाओ। जाओ विदियसमए विणासिज्जति ताओ असंखेज्जगुणहीणाओ। एवं णेदव्वं जाव दुचरिमसमयअविणट्ठकोधपढमकिट्टि ति। एदेण सव्वेण वि कालेण जाओ किडीओ विण जो अपूर्व कृष्टियां संक्रम्यमाण प्रदेशाग्रसे रची जाती हैं वे दो स्थानोंमें इस प्रकार रची जाती हैं- कृष्टि-अन्तरोंमें भी और संग्रहकृष्टि-अन्तरों में भी । जो संग्रहकृष्टि-अन्तरोंमें रची जाती हैं वे स्तोक हैं। जो कृष्टि-अन्तरोंमें रची जाती हैं वे असंख्यातगुणी हैं । जो संग्रहकृष्टि-अन्तरोंमें रची जाती है उनकी विधि, जैसी कृष्टिकरणमें निवर्तमान अपूर्व कृष्टियोंकी कही गई है, वैसी यहां भी जानना चाहिये। जो कृष्टिअन्तरोंमें रची जाती हैं उनकी विधि, जैसी बध्यमान प्रदेशाग्रसे निर्वतमान अपूर्व कृष्टियोंकी कही गई है, वैसी यहां भी जानना चाहिये । विशेष केवल यह है कि यहां पहिलेसे स्तोकतर कृष्टि-अन्तरोंका उल्लंघन करके संक्रम्यमाण प्रदेशाग्रसे अपूर्व कृष्टियोंको रचता है । वे कृष्टि अन्तर गणनासे पल्योपमवर्गमूलके असंख्यातवें भागमात्र हैं। प्रथम समय कृप्टिवेदकके जो क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि है उसका असंख्यातवां भाग समय-समयमें नष्ट किया जाता है। जो कृष्टियां प्रथम समयमें नष्ट की जाती हैं वे बहत हैं। जो द्वितीय समयमें नष्ट की जाती हैं वे असंख्यातगुणी हीन हैं। इस प्रकार यह क्रम अपने विनाशकालके विचरम समयमें अविनष्ट क्रोधकी प्रथम संग्रहकष्टि तक जानना चाहिये। इस सभी कालसे जो कृष्टियां नष्ट होती हैं वे प्रथम समय कृष्टिवेदकके १ संकमदो किट्टीणं संगहकिट्टीणमंतरे होदि। संगहअन्तरजादो किट्टीअंतरभवा असंखगुणा॥ लब्धि.५३४. २ संगहअंतरजाणं अपुवकिटिं व बंधकिटिं वा । इदराणमंतरं पुण पल्लपदासंखभागं तु ॥ लब्धि. ५३५. ३ कोहादिकिहिवेदगपढमे तस्स य असंखभागं तु । णासेदि हु पडिसमय तस्सासंखेज्जभागकम ।। लब्धि. ५३६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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