________________
१, ९–८, १६. ] चूलियाए सम्मत्तप्पत्तीए किडीकरणविहाणं
[ ३८१
तदियसमए असंखेज्जगुणं । एवं जात्र किट्टीकरणद्धाए चरिमादो त्ति असंखेज्जगुणं ।
किट्टीकरणढाए चरिमसमए संजलणाणं द्विदिबंधो चत्तारि मासा अंतो मुहुत्तभहिया' । सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । तम्हि चैव किट्टीकरणद्वाए चरिमसमए मोहणीयस्स ट्ठिदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि हाइदूण' अवस्यिं अंतोमुत्तमहिय जादं । तिन्हं घादिकम्माणं द्विदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । णामा- गोद-वेदणीयाणं द्विदिसंतकम्मं असंखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । एत्थुवउज्जतीओ गाहाओ
असंख्यातगुणा है | तृतीय समय में दिया जानेवाला प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । इस प्रकार कृष्टिकरणकालके अन्तिम समय तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा प्रदेशाय दिया जाता है ।
बारस णव छ तिगि य किड्डीओ होंति तह अगंताओ । एक्केकहि कसाए तिग तिग अहवा अणंताओं ॥ ३१ ॥
कृष्टिकरणकालके अन्तिम समय में संज्वलनचतुष्कका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त अधिक चार मास और शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात वर्षसहस्रप्रमाण होता है । उसी कृष्टिकरणकालके अन्तिम समय में मोहनीयका स्थितिसत्व संख्यात वर्षसहस्रसे क्रमशः घटकर अन्तर्मुहूर्त से अधिक आठ वर्षमात्र हो जाता है । तीन घातिया कर्मोंका स्थितिसत्व संख्यात वर्षसहस्र और नाम, गोत्र एवं वेदनीय, इनका स्थितिसत्व असंख्यात वर्षप्रमाण रहता है । यहां उपयुक्त गाथायें
क्रोध के उदयसे श्रेणीपर चढ़े हुए जीवके बारह, मानके उदयसे चढ़े हुए जीवके नौ, मायके उदयसे चढ़े हुए जीवके छह, और लोभके उदयसे चढ़े हुए जीवके तीन संग्रहकृष्टियां तथा अन्तरकृटियां अनन्त होती हैं। एक एक कषायमें तीन तीन संग्रहकृष्टियां अथवा अनन्त अन्तरकृष्टियां होती हैं ।। ३१ ।।
१ किट्टीकरणद्वाए चरिमे अंतोमुहुत्तसंजुत्तो । चत्तारि होंति मासा संजलणाणं तु ठिदिबंधो ॥ लब्धि. ५०६. २ प्रतिषु ' होण ' इति पाठः ।
३ सेसाणं वस्साणं संखेज्जसहरसगाणि ठिदिबंधो । मोहस्स य ठिदिसतं अडवस्तोमुहुत्तहियं ॥
लब्धि. ५०७.
४ घादितियाणं संखं वस्ससहस्साणि होदि ठिदिसंतं । वस्साणमसंखेज्जसहस्साणि अघादितिण्णं तु ॥
लब्धि. ५०८.
५ जयध. अ. प. ११३१. कोहस्स य माणस्स य मायालोभोदण चडिदस्स । वारस णव छ तिणि य संगहकिट्टी कमे होति ।। लब्धि ४९७. ताच कियः परमार्थतोऽनन्ता अपि स्थूरजातिभेदापेक्षया द्वादश कस्यन्ते, एकैकस्य कषायस्य तिस्रस्तिस्रः, तद्यथा - प्रथमा द्वितीया तृतीया च । एवं क्रोधेन प्रतिपन्नस्य द्रष्टव्यम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jairelibrary.org