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________________ ३१८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,९-८, १६. माणस्स अपुवफद्दयाणि विसेसाहियाणि । मायाए अपुव्वफद्दयाणि विसेसाहियाणि । लोभस्स अपुव्वफद्दयाणि विसेसाहियाणि । विसेसो अणंतभागो। तेसिं चेव पढमसमए णिव्यत्तिदाणमपुव्वफद्दयाणं लोभस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं थोवं । मायाए आदिवग्गणाए अविभागपलिच्छेदग्गं विसेसाहियं । माणस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं विसेसाहियं । कोधस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं विसेसाहियं । चदुण्हं पि कसायाणं जाणि अपुव्वफद्दयाणि तत्थ चरिमस्स अपुवफद्दयस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं चदुण्हं पि कसायाणं तुल्लमणंतगुणं । कोहादिचदुण्हं संजलणाणं जाओ आदिवग्गणाओ, तासिं परिवाडीए जहाकमेणेसा संदिट्ठी-२१०।१६८।१४०।१२०॥ कोहादणिं जहाकमेण अपुव्वफद्दयसलागाओ एदाओ- १२।१५।१८।२१।। मानके अपूर्वस्पर्द्धक विशेष अधिक, मायाके अपूर्वस्पर्द्धक विशेष अधिक, और लोभके अपूर्वस्पर्द्धक विशेष अधिक हैं। अधिकताका प्रमाण यहां अनन्तवां भाग है। प्रथम समयमें निर्वर्तित उन्हीं अपूर्वस्पर्द्धकोंमें लोभकी प्रथम वर्गणामें अविभागप्रतिच्छेदसमूह स्तोक है । मायाकी प्रथम वर्गणामें अविभागप्रतिच्छेदसमूह विशेष अधिक है। मानकी प्रथम वर्गणामें अविभागप्रतिच्छेदसमूह विशेष अधिक है। क्रोधकी प्रथम वर्गणामें अविभागप्रतिच्छेदसमूह विशेष अधिक है । चारों ही कषायोंके जो अपूर्वस्पर्द्धक हैं उनमें अन्तिम अपूर्वस्पर्द्धककी प्रथम वर्गणामें अविभागप्रतिच्छेदोका समूह चारों ही कषायोके तुल्य अनन्तगुणा है । क्रोधादिरूप चारों संज्वलनोंकी जो प्रथम वर्गणायें हैं उनकी परिपाटीमें यथाक्रमसे यह संदृष्टि है-२१०।१६८। १४० । १२०। क्रोधादिकोंकी यथाक्रमसे अपूर्वस्पर्द्धकशलाकायें ये हैं- १२। १५। १८ । २१।। विशेषार्थ-अपूर्वस्पर्द्धकोंमें प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंको स्पर्द्धकशलाकासे गुणा कर देनेपर अन्तिम स्पर्द्धककी आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंका प्रमाण आता है, जो सब कषायोंका तुल्य होता है तथा आदिम वर्गणाकी अपेक्षा अनन्तगुणा है। क्रोध मान माया लोभ आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद ... ... ... २१०। १६८, १४०। १२० अपूर्वस्पर्धक शलाका ... ... ४१२४१५/४१८४२१ अन्तिम स्पर्द्धककी आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद ... २५२०२५२०/२५२०२५२० .........................................-- १ पुव्वाण फड़याणं छेत्तूण असंखभागदव्वं तु । कोहादीणमपुव्वं फढयमिह कुणदि अहियकमा ॥ लब्धि. ४६८. २ कोहादीणमपुव्वं जेटुं सरिसं तु अवरमसरित्थं । लोहादिआदिवग्गणअविभागा होति अहियकमा ॥ लब्धि. ४७१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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