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१, ९-८, १६.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए खइयचारित्तपडिव'जणविहाणं [३६७ भागुत्तरं होदि । पुणो असंखेज्जदिभागुत्तरं गंतूण पुणो अणंतभागुत्तरं होदि । एवमणतराणंतरेण गंतूण चरिमस्स वि फद्दयस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं विसेसाहियमगंतभागेण ।
जाणि पढमसमए अपुष्यफयाणि णिव्वत्तिदाणि तत्थ पढमस्स फद्दयस्स आदिवग्गणा थोत्रा । चरिमस्स अपुवफद्दयस्स आदिवग्गणा अणंतगुणा । पुवफदयस्स वि आदिवग्गणा अणंतगुणा । जहा लोभस्स अपुयफद्दयाणि परूविदाणि पढमसमए, तथा मायाए माणस्स कोधस्स य परूवेदव्वाणि ।।
पढमसमए जाणि अपुवफद्दयाणि णिव्वत्तिदाणि तत्थ कोधस्स थोवाणि ।
भागोत्तरवृद्धिसे जाकर पुनः अनन्तवें भागसे अधिक होता है । इस प्रकार अनन्तर अनन्तररूपसे जाकर (द्विचरम स्पर्द्धककी प्रथम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा) अन्तिम स्पर्द्धककी भी प्रथम वर्गणामें अविभागप्रतिच्छेदोंका समूह अनन्त भागसे विशेष अधिक है।
विशेषार्थ-उपर्युक्त कथनका अभिप्राय इस प्रकार है-द्वितीय स्पर्द्धककी प्रथम वर्गणासे तृतीय स्पर्द्धककी प्रथम वर्गणा कुछ कम द्वितीय भागसे अधिक है, तृतीय स्पर्द्धककी प्रथम वर्गणासे चतुर्थ स्पर्द्धककी प्रथम वर्गणा कुछ कम तृतीय भागसे अधिक है, इस प्रकार जब तक जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण स्पर्द्धकोंकी अन्तिम स्पर्द्धकवर्गणा अपने अनन्तर नीचेके स्पर्द्धककी प्रथम वर्गणासे उत्कृष्ट संख्यातवें भागसे अधिक होकर संख्यातभागवृद्धिके अंतको न प्राप्त हो जाये तब तक इसी प्रकार चतुर्थ-पंचम भागाधिकक्रमसे ले जाना चाहिये । इससे आगे जब तक आदिसे लेकर जघन्य परीतानन्तप्रमाण स्पर्द्धकोंमें अन्तिम स्पर्द्धककी प्रथम वर्गणा अपने अनन्तर नीचेके स्पर्द्धककी प्रथम वर्गणासे उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातवें भागसे अधिक होकर असंख्यातभागवृद्धिके अन्तको न प्राप्त हो जावे तब तक असंख्यातभागोत्तरवृद्धिका क्रम चालू रहता है। इसके आगे अन्तिम अपूर्वस्पर्द्धक तक अनन्तभागवृद्धिका क्रम जानना चाहिये।
प्रथम समयमें जो अपूर्वस्पर्द्धक निर्वर्तित हैं उनमें प्रथम स्पर्द्धककी प्रथम वर्गणा स्तोक और अन्तिम अपूर्वस्पर्द्धककी प्रथम वर्गणा अनन्तगुणी है। पूर्वस्पर्द्धककी भी आदिम वर्गणा अनन्तगुणी है । प्रथम समयमें जिस प्रकार लोभके अपूर्वस्पर्द्धकोंका प्ररूपण किया है उसी प्रकार माया, मान और क्रोधके भी अपूर्वस्पर्द्धकोंका प्ररूपण करना चाहिये।
प्रथम समयमें जो अपूर्वस्पर्द्धक निर्वर्तित हैं उनमें क्रोधके अपूर्वस्पर्द्धक स्तोक,
१ प्रतिषु । -मागुत्तरं गंतूण पुणो असंखेज्जदिमागुत्तरं होदि ' इति पारः।
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