________________
१, ९-८, १६. ] चूलियाए सम्मत्तप्पत्तीए खइयचारित पडिवजणविहाणं
गुणसेडि अनंतगुणेणूणार वेदगो दु अणुभागे । गणणादियंतसेडी पदे अग्गेण बोद्धव्वा' ॥ २९॥ बंधोदरहिणियमा अणुभागो होदि णंतगुणहीणो । से काले से काले भज्जो पुण संकमो होदि ॥ ३० ॥ ) सहं णोकसायाणं संकामगस्स चरिमो द्विदिबंधो पुरिसवेदस्स अट्ठ वस्त्राणि, संजलणाणं सोलस वस्साणि, सेसाणं कम्माणं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ट्ठिदिसंतकम्मं पुण घादिकम्माणं चदुण्हं पि संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि, णामा- गोद-वेदणीयाणमसंखेज्जाणि वस्त्राणि | अंतरादा पढमसमयकदादो पाए छण्णोकसाए कोहे संछुहृदि, ण
( अप्रशस्त प्रकृतियोंके ) अनुभागका वेदक अनन्तगुणित हीन गुणश्रेणीरूपसे. होता है । तथा प्रदेशाग्रकी अपेक्षा गणनातिक्रान्त अर्थात् असंख्यातगुणी श्रेणीरूपले वेदक होता है, ऐसा जानना चाहिये ॥ २९ ॥
[ ३६३
नियमतः बन्ध व उदयसे अनुभाग अर्थात् अनुभागबन्ध और अनुभागउदय उत्तरोत्तर अनन्तरकालमें अनन्तगुणे हीन हैं । परन्तु अनुभागसंक्रम भाज्य है अर्थात् उक्त हीनता के नियमसे रहित है ॥ ३० ॥
सात नोकषायों के संक्रामकका अन्तिम स्थितिबन्ध पुरुषवेदका आठ वर्ष, संज्वलनचतुष्कका सोलह वर्ष, और शेष कर्मोंका संख्यात वर्षप्रमाण होता है । परन्तु स्थितिसत्व चारों घातिया कर्मोंका संख्यात वर्ष तथा नाम, गोत्र व वेदनीय, इनका असंख्यात वर्षप्रमाण रहता है । प्रथम समयकृत अन्तरसे, अर्थात् अन्तरकरण कर चुकनेके पश्चात् अनन्तर समय से लेकर छह नोकपायोंको संज्वलनक्रोधमें स्थापित करता है, अन्य
१ लब्धि. ४५४. तदो समये समये अनंतगुणहीणमणंतगुणहीणमपसत्थक्रम्माणमणुभागमेसो वेदयदि ति गाहापुव्वद्धे समुदयत्थो । XXX गणणादियंतसेठीं एवं भणिदे असंखेज्जगुणाए सेटीए पदेसग्गमेसो समयं पडि वेदेदिति भणिदं होई । जयध. अ. प. १०९३.
1
२ लब्ध. ४५५. बंधोदएहिं एवं भणिदे बंधोदयेहि ताव णियमा णिच्छएण अणुभागो सेकालभाविओ अणंतगुणहीणो होदि त्ति पदसंबंधो। संपहिय कालविसयादो अणुभागबंधादो से काले विसओ अणुभागबंधो विसोहिपाहम्मेणाणंतगुणहीणो होदि । एवमुदओ विदोति भणिदं होदि । भज्जो पुण संक्रमो होई एवं भणिदे अणुभागसंक्रमण अनंतगुणहीणत्ते भयणिज्जी होई । किं कारणं ? जाव अणुभागखंडयं ण पादेदि ताव अवट्टिदो चेव संक्रमो भवदि, अणुभागखंडए पुण पदिदे अणुभागसंक्रमो अनंतगुणहीणो जायदि ति तत्थ परिफुडमेव भयणिज्जत्तइंसणादो । जयध. अ. प. १०९४.
३ सत्तण्हं संकामगचरिमे पुरिसस्त बंधमडवरसं । सोलस संजलणाणं संखसहस्साणि सेसाणं ॥ लब्धि ४५७. ४ ठिदिसतं घादीणं संखसहस्साणि होति वस्साणं । होंति अघातिदियाणं वस्साणमसंखमेत्ताणि || लब्धि. ४५८.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org