________________
३६२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ९-८, १६. संखेज्जेसु भागेसु गदेसु णाणावरण-दसणावरण-अंतराइयाणं संखेज्जवस्साहिदिगं संतकम्म जादं । तत्तो पाएण घादिकम्माणं ट्ठिदिवंधे द्विदिखंडए च पुण्णे पुण्णे ट्ठिदिबंध-ट्ठिदिसंतकम्माणि संखेज्जगुणहीणाणि । णामा-गोद-वेदणीयाणं पुण्णे द्विदिखंडए असंखेज्जगुणहीणं डिदिसंतकम्मं । एदेसिं चेव द्विदिबंधे पुण्णे अण्णो द्विदिबंधो संखेज्जगुणहीणो । एदेण कमेण ताव जाव सत्तण्हं णोकसायाणं संकामगस्स चरिमद्विदिवंधो त्ति । अणुभागबंधो अणुभागुदओ च समयं पडि असुहाण कम्माणमणतगुणहीणो' । वुत्तं च
( उदओ च अणंतगुणो संपहिबंधेण होदि अणुभागे ।
से काले उदयादो संपदिबंधो अणंतगुणो ॥ २७ ॥ बंधेण होदि उदओ अहिओ उदएण संकमो अहिओ । गुणसेडि अणंतगुणा बोद्धव्वा होदि अणुभागे ॥ २८ ॥
कालमेंसे संख्यात बहुभागोंके चले जानेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय इनका संख्यात वर्षमात्र स्थितिवाला सत्व हो जाता है । यहांसे लेकर घातिया कर्मों के प्रत्येक स्थितिबन्ध और स्थितिकांडकके पूर्ण होनेपर स्थितिबन्ध एवं स्थितिसत्व संख्यातगुणे हीन होते जाते हैं । स्थितिकांडकके पूर्ण होनेपर नाम, गोत्र व वेदनीय, इनका स्थितिसत्व असंख्यातगुणा हीन होता जाता है। इनके ही स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर अन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता जाता है । इस क्रमसे तब तक जाते हैं जब तक कि सात नोकषायोंके संक्रामकका अन्तिम स्थितिबन्ध होता है। अशुभ कर्मों का अनुभागबन्ध घ अनुभागोदय प्रत्येक समयमें अनन्तगुणा हीन होता है । कहा भी है
अनुभागविषयक साम्प्रतिक बन्धसे साम्प्रतिक अनुभागोदय अनन्तगुणा होता है। इससे अनन्तर कालमें होनेवाले उदयसे साम्प्रतिक बन्ध अनन्तगुणा होता था ॥२७॥
बन्धसे अधिक उदय और उदयसे अधिक संक्रमण होता है। इस प्रकार अनुभागके विषयमें अनन्तगुणित गुणश्रेणी जानना चाहिये ॥२८॥ .................-. -.. --.
१ ठिदिखंडपुधत्तगदे संखाभागा गदा तदद्घाए। घादितियाणं तत्थ य ठिदिसतं संखवस्सं तु ॥ कन्धि. ४५१.
२ पडिसमयं असुहाणं रसबंधुदया अणंतगुणहीणा। बंधो वि य उदयादो तदणंतरसमय उदयोथ ॥ लन्धि. ४५१.
३ उदओ च अणंतगुणो एवं भणिदे वट्टमाणसमयपबद्धादो वट्टमाणसमये उदओ अणंतगुणो त्ति दट्ठव्वो। किं कारणं ? चिराणसंतसरूवत्तादो|xxx से काले उदयादो एवं भणिदे णिरुद्धसमयादो तदणंतरोवरिमसमए जो उदओ अणुभागविसओ, तत्तो एसो संपहिसमयपबद्धो अणंतगुणो ति दट्टयो । कुदो एवं चे समए समए अणुभागोदयस्स विसोहिपाहम्मेणाणंतगुणहाणीए ओवहिज्जमाणस्स तहाभावोववत्तीए । जयध. अ. प. १०९३.
४ लब्धि. ४५३, जयध. अ. प. १०९२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org