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________________ ३६० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-८, १६. ( गुणसेडिअसंखेज्जा पदेसअग्गेण संकमो उदओ। से काले से काले भज्जो बंधो पदेसग्गे ॥२६॥) एवं णqसयवेदं संकामिय तदो से काले इत्थिवेदस्स पढमसमयसंकामगो जादो। ताधे अण्णो द्विदिखंडओ', अण्णो अणुभागखंडओ, अण्णो द्विदिबंधो च पारद्धो । तदो द्विदिखंडयपुधत्तेण इथिवेदक्खवणद्धाए संखेज्जदिभागे गदे णाणावरणदंसणावरण-अंतराइयाणं संखेज्जवस्सद्विदिओ बंधो जादो । तदो द्विदिखंडयपुधत्तेण इत्थिवेदस्स जं हिदिसंतकम्मं तं सबमागाइदं । सेसाणं कम्माणं विदिसंतकम्मस्स असंखेज्जा भागा आगाइदा। तम्हि द्विदिखंडए पुण्णे इत्थिवेदो संछुहमाणो संछुद्धो । ताधे चेव मोहणीयस्स संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि हिदिसंतकम्मं जादं । संक्रमण (गुणसंक्रमण) और उदय उत्तरोत्तर अनन्तर कालमें अपने अपने प्रदेशाग्रकी अपेक्षा असंख्यातगुणित श्रेणीरूप होते हैं। किन्तु प्रदेशाग्रकी अपेक्षा बन्ध भजनीय है, अर्थात् वह योगोंकी हानि, वृद्धि व अवस्थानके अनुसार हानि, वृद्धि या अवस्थानरूप होता है ॥२६॥ इस प्रकार नपुंसकवेदको संक्रमाकर तदनन्तर कालमें स्त्रीवेदका प्रथमसमयवर्ती संक्रामक होता है। उस समयमें अन्य स्थितिकांडक, अन्य अनुभागकांडक और अन्य स्थितिबन्धका प्रारम्भ करता है । पश्चात् स्थितिकांडकपृथक्त्वसे स्त्रीवेदके क्षपणाकालमें संख्यातवें भागके व्यतीत होनेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, इनका संख्यात वर्षमात्र स्थितिवाला बन्ध होता है। पश्चात् स्थितिकांडकपृथक्त्वसे स्त्रीवेदका जो स्थितिसत्व है वह सब क्षपणामें आकर प्राप्त हो जाता है। शेष कर्मों के स्थितिसत्वके असंख्यात बहुभाग प्राप्त होते हैं। उस स्थितिकांडकके पूर्ण होनेपर संक्रमणको प्राप्त कराया जानेवाला स्त्रीवेद संक्रमणको प्राप्त हो जाता है। उसी समय ही मोहनीयका स्थितिसत्व संख्यात वर्षप्रमाण रह जाता है। १लब्धि. ४४२. गुणसेटिअसंखेज्जा च एवं भणिदे पदेसग्गेण णिहालिज्जमाणे संकमो उदओ चणियमा असंखेज्जाए सेटीए पयदि त्ति घेत्तव्यं । जयध. अ. प. १०९४. से काले से काले भणिदे वीप्सानिर्देशोऽयं दृष्टव्यः, अथवा एक्को सेकालणिदेसो गाहापुबद्धाणिद्दिट्ठाणमुदयसंकमाणं विसेसणभावेण संबंधणिज्जो, अण्णो पच्छद्ध णिद्दिट्ठस्स बंधस्स विसेसणभावेण जोजेयव्वो । भज्जो बंधो पदेसम्गे एवं भणिदे पदेसग्गविसओ बंधो चउविहवडिहाणिअवठ्ठाणेहि भजियव्यो ति भणिदं होई, जोगवडिहाणिअवठ्ठाणवसेण पदेसबंधस्स तहा भावसिद्धीए विरोहाभावादो। जयध. अ. प. १०९५. २ प्रतिषु ' हिदिबंधओ' इति पाठः। ३ इदि संदं संकामिय से काले इत्थिवेदसंकमगो। अण्णं ठिदिरसखंडं अण्णं ठिदिबंधमारभइ ॥लब्धि.४४३. ४ थी अद्धासंखेज्जाभागे पगदे तिघादिठिदिबंधो । वस्साणं संखेज्जं थीसंतापगळ्ते ॥ लब्धि ४४४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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