SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 417
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, ९-८, १६.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए खइयचारित्तपडिवज्जणविहाणं [३५७ वरणीयमणुभागबंधेण देसघादी जादं । तदो द्विदिखंडयपुधत्तेण आभिणिबोहियणाणावरणीय-परिभोगंतराइयाणमणुभागो बंधेण देसघादी जादो । तदो द्विदिखंडयपुधत्तेण वीरियंतराइस्स अणुभागो बंधेण देसघादी जादो। तदो द्विदिखंडयसहस्सेसु गदेसु अण्णं द्विदिखंडय-( मण्णमणुभागखंडय-) मण्णं द्विदिबंधं अंतरहिदिउक्कीरणं च समगमाढवेदि । चदुहं संजलणाणं णवण्हं णोकसायाणं च अंतरं करेदि । सेसाणं कम्माणं णस्थि अंतरं । पुरिसवेदस्स कोहसंजलणस्स य पढमहिदिमतोमुहुत्तमेत्तं मोत्तूण अंतरं करेदि, सोदयत्तादो । सेसाणं कम्माणमावलिय मोत्तूण अंतरं करेदि, उदयाभावादो । जाओ अंतरविदीओ उक्कीरिज्जति तासिं पदेसग्गमुक्कीरिज्जमाणियासु हिदीसु ण दिज्जदि। जासिं पयडीण पढमद्विदी अत्थि, तिस्से पढमद्विदीए जाओ संपहिद्विदीओ उक्कीरिज्जति तं उक्कीरिज्जमाणं पदेसग्गं संछुहदि। चक्षुदर्शनावरणीय अनुभागबन्धसे देशघाती हो जाता है । पुनः स्थितिकाण्डकपृथक्त्यसे आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय और परिभोगान्तरायका अनुभाग वन्धसे देशघाती हो जाता है। पुनः स्थितिकाण्डकपृथक्त्वसे वीर्यान्तरायका अनुभाग बन्धसे देशघाती हो जाता है। तत्पश्चात् स्थितिकांडकसहस्रोंके बीत जानेपर अन्य स्थितिकांडक, (अन्य अनुभागकांडक), अन्य स्थितिवन्ध और अन्तरस्थिति-उत्कीरण, इनको एक साथ प्रारम्भ करता है । चार संज्वलन और नव नोकषायोंके अंतरको करता है। शेष कर्मोंका अन्तर नहीं होता। पुरुषवेद और संज्वलनक्रोधकी अन्तर्मुहूर्तमात्र प्रथमस्थितिको छोड़कर अन्तर करता है, क्योंकि इनका यहां उदय पाया जाता है। शेष कर्मोंकी आवलीमात्र प्रथमस्थितिको छोड़कर अन्तर करता है, क्योंकि यहां शेष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है जिन अन्तरस्थितियोंको उत्कीर्ण किया जाता है उनके प्रदेशाग्रको उत्कीर्ण की जानेवाली स्थितियों में नहीं देता है । जिन उदयप्राप्त प्रकृतियोंकी प्रथमस्थिति है उस प्रथमस्थितिमें, जो इस समय स्थितियां उत्कीर्ण की जा रही हैं उस उत्कीर्ण किये जानेवाले प्रदेशको ( अपकर्षण करके यथासम्मव समस्थितिसंक्रमण द्वारा) देता है। जो प्रकृतियां १ ठिदिबंधपुधत्तगदे मणदाणा तत्तियेवि ओहिदुगं । लाभं च पुणोवि सुदं अचक्खुभोगं पुणो चक्खु ॥ पुणरवि मदिपरिभोगं पुणरवि विरयं कमेण अणुभागो। वंधेण देसघादी पहासंखं तु ठिदिबंधो । लब्धि. ४३१.४३२. २ अ-आप्रत्योः 'अणंतर ' इति पाठः ।। ३ ठिदिखंडसहस्सगदे चदुसंजलणाण णोकसायाणं। एयहिदिखंडक्कीरणकाले अंतरं कुणइ ॥ संजलणाणं एक्कं वेदाणेक्कं उदेदि तद्दोण्हं । सेसाणं पढमहिदि ठवेदि अंतोमुहुत्तआवलियं ॥ लब्धि. ४३३-४३४. ४ जासिं पयडीणं वेदिज्जमाणाणं पढमट्टिदी अस्थि तासिं तिस्सेव पटमट्ठिदीए उवरि अप्पणो अण्णेसिं च कम्माणमंतरविदीसु च उकीरिज्जमाणं पदेसग्गमोकड्डणाए जहासंभवं समझिदिसंक्रमणेण च संहदि ति मुत्तत्थो। जयध. अ. प. १०८०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy