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३३२] छक्वंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ९-८, १४. ___ एसा सव्वा परूवणा पुरिसवेदयस्स कोहेण उवट्ठिदस्स' । पुरिसवेदओ चेव जदि माणेण उवद्विदो होज्ज तो जाव सत्त णोकसायाणमुवसामणा, ताव णत्थि णाणत्तं, उवरि णाणत्तं होदि । तं जहा-माणं वेदंतो कोधमुवसामेदि । जद्देही कोहेण उवट्ठिदस्स कोहस्स उवसामणद्धा तद्देही चेव माणेण वि उवट्ठिदस्स कोधस्स उवसामणद्धा । कोधस्स पढमट्टिदी णत्थि । जद्देही कोहेण उवट्ठिदस्स कोधस्स माणस्स य पढमट्ठिदी तदेही माणेण उवविदस्स माणस्स पढमट्ठिदी होदि । माणे उवसंते एत्तो सेसस्स उवसामेदव्वस्स मायाए लोभस्स च जो कोधेण उवट्ठिदस्स उवसामणविधी सो चेव कायव्यो । माणेण उवट्ठिदस्स उवसामेदूण तदो पडिवदिदूण लोभं वेदयमाणस्स जो पुत्रं परूविदो विधी सो चेव कायव्यो । एवं मायं वेदयमाणस्स वि वत्तव्यं ।
तदो माणं वेदयमाणस्स णाणत्तं । तं जहा- गुणसेडीणिक्खेवो ताव णवण्हं कसायाणं सेसाणं कम्माण गुणसेडीणिक्खेवेण तुल्लो, सेसे सेसे च णिक्खेवो । कोहेण उपढिदस्स उवसामगस्स पुणो पडिवदमाणयस्स जद्देही माणवेदगद्धा तत्तियमेत्तण कालेण माणवेदगद्धाए अधिच्छिदाए ताधे चेव माणं वेदंतो एगसमएण तिविधं कोधमणुवसंतं
यह सब प्ररूपणा क्रोधसे उपस्थित पुरुषवेदीकी है। पुरुषवेदी ही यदि मानसे उपस्थित होता है तो जब तक सात नोकषायोंकी उपशामना है, तब तक कोई नानात्व अर्थात् भेद या विशेषता नहीं है, ऊपर विशेषता है। वह इस प्रकार है-मानका वेदन करनेवाला क्रोधको उपशमाता है । क्रोधसे उपस्थित जीवके जितना क्रोधका उपशामनकाल है उतना ही मानसे भी उपस्थित जीवके क्रोधोपशामनकाल होता है। क्योंकि उसके क्रोधकी प्रथमस्थिति नहीं है। क्रोधसे उपस्थित हुए जीवके जितनी क्रोध और मानकी सम्मिलित प्रथमस्थिति है उतनी ही मानसे उपस्थित जीवके मानकी प्रथम स्थिति होती है। मानके उपशान्त होनेपर शेष उपशमके योग्य माया व । उपशामनविधि जो क्रोधसे उपस्थित हुए जीवकी है वही करना चाहिये। मानसे उपस्थित होनेवालेके उपशम करके पुनः नीचे उतरकर लोभका वेदन करते हुए जो विधि पूर्वमें कही जा चुकी है वहीं विधि करना चाहिये। इसी प्रकार मायाका वेदन करनेवालेके भी कहना चाहिये।
उससे मानका वेदन करनेवालेके विशेषता है। वह वह इस प्रकार है-नौ कषायोंका गुणश्रेणिनिक्षेप शेष कर्मोके गुणश्रेणिनिक्षेपके तुल्य और शेष शेषमें निक्षेप है। क्रोधसे उपस्थित हुए उपशामकके पुनः उतरते हुए जितना मानवेदककाल है उतनेमात्र कालसे मानवेदककालके अतिक्रमण करनेपर उसी समयमें ही मानका वेदन
१ कोधोदयचलियस्सेसा ह परूवणा हु पुंमाणे । मायालोभे चलिदस्सथि विसेसं तु पत्तेयं ॥ लन्धि. ३५२.
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