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________________ ३२२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-८, १४: णिक्खेवो । मोहणीयवज्जाणं कम्माणं जो पढमसमयसापराइयेण णिक्खेवो णिक्खित्तो तस्स णिक्खेवस्स सेसे सेसे णिक्खिवदि । पढमसमयमाणवेदयस्स णवविहो वि कसाओ संकमदि । तावे तिण्हं संजलणाणं विदिबंधो चत्तारि मासा पडिवुण्णा, सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । एवं द्विदिबंधसहस्साणि बहूणि गंतूण माणस्स चरिमसमयवेदगो। तस्स चरिमसमयवेदगस्स तिहं संजलणाणं द्विदिबंधो अट्ठ मासा अंतोमुहुन्नूणा, सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । से काले तिविहं कोहमोकड्डिदण कोहसंजलणस्स उदयादिगुणसेडिं करेदि, दुविहस्स कोहस्स आवलियबाहिरे करेदि । एण्हि गुणसेडीणिक्खेवो केत्तिओ कायव्यो ? पढमसमयकोधवेदगस्स वारसण्हं पि कसायाणं गुणसेडीणिक्खेवो सेसाणं कम्माणं गुणसेडीणिक्खेवेण सरिसो होदि । जहा मोहणीयवज्जाणं कम्माणं सेसे सेसे गुणसेडिं णिक्खिवदि, तधा एत्तो पाए वारसण्हं है। मोहनीयको छोड़कर शेष कर्मोंका निक्षेप जो प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक द्वारा निक्षिप्त किया गया है उसके शेष शेषमें निक्षेपण करता है। प्रथम समय मानवेदककी नौ प्रकारकी भी कषाय संक्रमण करती है । तब तीन संज्वलनोंका स्थितिबन्ध पूर्ण चार मासप्रमाण तथा शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात वर्षसहस्रमात्र होता है। इस प्रकार बहुत स्थितिवन्धसहस्र जाकर मानका अन्तिम समय वेदक होता है। उस अन्तिम समय वेदकके तीन संज्वलनोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम आठ मास और शेष कर्मोका स्थितिबन्ध संख्यात वर्षसहस्रमात्र होता है । अनन्तर कालमें तीन प्रकारके क्रोधका अपकर्षण करके संज्वलनक्रोधकी उदयादिगुणश्रेणी करता है, तथा अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यान क्रोधकी उदयावलीके बाहिर गुणश्रेणी करता है। शंका -क्रोधवेदकके प्रथम समयमें गुणश्रेणिनिक्षेप कितना करने योग्य है ? समाधान-प्रथम समय क्रोधवेदकके बारह कपायोंका गुणश्रेणिनिक्षेप शेष कर्मोंके गुणश्रेणिनिक्षेपके समान होता है। जिस प्रकार मोहनीयको छोड़कर शेष कर्मों की गुणश्रेणीको शेष शेषमें निक्षेपण करता है, उसी प्रकार यहांसे लेकर बारह कपायोंकी गुणश्रेणीका शेष शेषमें १ ओदरगमाणपढमे तेत्तियमाणादियाण पयडीणं । ओदरगमाणवेदगकालादहियं दु गुणसेढी । लब्धि.३१९. २ प्रतिषु '-सांपरायाण' इति पाठः । ३ तस्मिन्नेव मानवेदकप्रथमसमये नवविधकषायद्रव्यमनानुपूा बध्यमानलोभमायामानेषु संक्रामति । लब्धि. ३१९. टीका. ४ ओदरगमाणपढमे चउमासा माणपहुदिठिदिबंधो। छहं पुण वस्साणं संखेज्जसहस्समेत्ताणि लन्धि . ३२.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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