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________________ १, ९-८, १४.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए चारित्तपडिवजणविहाणं [ २७१ वा जदि संजमासंजमं पडिवज्जदि तो दो चेव करणाणि, अणियट्टीकरणस्स अभावादो । संजमासंजममतोमुहुत्तेण लभिहिदि त्ति तदो पहुडि सव्वो जीवो आयुगवज्जाणं कम्माणं ट्ठिदिबंधं द्विदिसंतकम्मं च अंतोकोडाकोडीए करेदि । सुभाणं कम्माणमणुभागबंधमणुभागसंतकम्मं च चउट्ठाणियं करेदि । असुहकम्माणमणुभागबंधमणुभागसंतकम्मं च वेढाणियं करेदि । तदो अधापवत्तकरणणामाए अणतगुणाए विसो. हीए विसुज्झदि । एत्थ णत्थि द्विदिखंडओ वा अणुभागखंडओ वा गुणसेडी वा । केवलं द्विदिबंधे पुण्णे पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागहीणेण द्विदिबंधेण द्विदीओ बंधदि । जे सुहकम्मंसा ते अणुभागेहि अणंतगुणेहि बंधदि । जे असुहकम्मंसा ते अणंतगुणहीणेहि अणुभागेहि बंधदि । विसोहीए तिव्य-मंदत्तं वत्तइस्सामो- अधापवत्तकरणस्स जदो पहुडि विसुद्धो तस्स पढमसमए जहणिया विसोही थोवा । विदियसमए जहणिया विसोही अणंतगुणा । तदियसमए जहणिया विसोही अणंतगुणा । एवमंतोमुहुत्तं जहणिया चेव विसोही अणंतगुणेण गच्छदि । तदो पढमसमए उक्कस्सिया विसोही अणंतगुणा । सेसअधापवत्त .............. वेदकसम्यक्त्व प्राप्त करने के योग्य मिथ्यादृष्टि जीव यदि संयमासंयमको प्राप्त होता है, तो उसके दो ही करण होते हैं. क्योंकि, उसके अनिवृत्तिकरण नहीं होता है। संयमासंयमको अन्तर्मुहूर्तकालसे प्राप्त करेगा, इस कारण वहांसे लेकर सर्व जीव आयुकर्मको छोड़कर शेष सातों कर्मोंके स्थितिवन्धको और स्थितिसत्त्वको अन्तःकोड़ाकोड़ीके प्रमाण करते हैं। शुभ कर्मोंके अनुभागबन्धको और अनुभागसत्त्वको चतुःस्थानीय करते हैं। तथा अशुभ कर्मोंके अनुभागबन्धको और अनुभागसत्त्वको द्विस्थानीय करते हैं। तत्पश्चात् अधःप्रवृत्तनामा अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा विशुद्ध होता है । यहांपर न स्थितिकांडकघात होता है, न अनुभागकांडकघात होता है और न गुणश्रेणी होती है। केवल स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन स्थितिबन्धके द्वारा स्थितियोंको बांधता है । जो शुभ कर्म-प्रकृतियां हैं, उन्हें अनन्तगुणित अनुभागोंके साथ बांधता है। जो अशुभ कर्म-प्रकृतियां हैं, उन्हें अनन्तगुणित हीन अनुभागोंके साथ बांधता है।। अब इसी जीवके विशुद्धिकी तीव्र-मन्दता कहते हैं - अधःप्रवृत्तकरणके जिस समयसे विशुद्ध हुआ है, उसके प्रथम समयमें जघन्य विशुद्धि सबसे कम है। इससे द्वितीय समयमें जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणित है। इससे तृतीय समयमें जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणित है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त तक जघन्य विशुद्धि ही अनन्तगुणितक्रमसे जाती है। तत्पश्चात् प्रथम समयमें उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणित होती है । शेष अधः १ठिदिरसघादो णस्थि हु अधापवत्ताभिधाणदेसस्स । पडिउट्ठदे मुहुत्तं संतेण हि तस्स करणदुगा॥ देसे समए समए सुझंतो संकिलिस्समाणो य । चउवडिहाणिव्वादवट्ठिदं कुणदि गुणसेटिं ॥ लब्धि. १७३-१७४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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