________________
१, ९-८, १२. ] चूलियाए सम्मत्तप्पत्तीए खइयसम्मत्तप्पादणं
[ २५५
मोहणीयस्स ट्ठिदिसंतकम्मं असणिट्ठिदिबंधेण सरिसं जादं । तदो द्विदिखंडयपुधत्तेण चउरिंदियट्ठिदिबंधेण समगं जादं । तदो ट्ठिदिखंडयपुधत्तेण द्विदिसंतकम्मं तीइंदियट्ठिदिबंधेण सरिसं होदि । तदो ट्ठिदिखंडयपुधत्तेण दंसणमोहडिदिसंतकम्मं बीइंदियट्ठिदिबंधेण समगं होदि । तदो ट्ठिदिखंडयपुधत्तेण दंसणमोहट्ठिदिसंतकम्मं एइंदियट्ठिदिबंधेण समर्ग होदि । तदो ट्ठिदिखंडयपुधतेण दंसणमोहणीयट्ठिदिसंतकम्मं पलिदोवमडिदिगं जाद' | जाव पलिदोवमट्ठिदिगं संतकम्मं तात्र पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो ठिदिखंडगो । पुणो पलिदोवमस्स संखेज्जा भागा आगाइदा । तम्हि ठिदिखंडगे गिट्टिदे तत्तो हुडि सेसट्ठिदिसंतकम्मस्स संखेज्जे भागे आगाएदि । एवं ट्ठिदिखंडय सहस्से सु गदेसु पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागे द्विदिसंतकम्मे सेसे सेसस्स संखेज्जेसु भागेसु देसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागम्मि अवट्टाणजोगे दूरावकिट्टिणाम द्विदी
स्थितिसत्त्व असंझी जीवोंके स्थितिबन्धके सदृश हो गया । पुनः स्थितिकांडक पृथक्त्वके द्वारा दर्शनमोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व चतुरिन्द्रियके स्थितिबन्धके सदृश हो गया । पुनः स्थितिकांडक पृथक्त्वके द्वारा दर्शनमोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व त्रीन्द्रियके स्थितिबन्धके सदृश होता है । पुनः स्थितिकांडकपृथक्त्वके द्वारा दर्शनमोहनीय कर्मका स्थितिसत्त्व द्वीन्द्रियके स्थितिबन्धके सदृश होता है । पुनः स्थितिकांडकपृथक्त्वके द्वारा दर्शन मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व एकेन्द्रियके स्थितिबन्धके सदृश होता है । पुनः स्थितिकांडक पृथक्त्वके द्वारा दर्शनमोहनीय कर्मका स्थितिसत्त्व एक पल्योपमकी स्थितिवाला हो गया। जब तक दर्शनमोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व एक पल्योपमकी स्थितिवाला रहता है, तब तक स्थितिकांडकका प्रमाण पल्योपमका संख्यातवां भाग है। इसके पश्चात् पल्योपमके संख्यात बहु भागोंको स्थितिकांडकरूपसे ग्रहण करता है । उस स्थितिकांडकके समाप्त होनेपर उससे आगे शेष स्थितिसत्त्वके संख्यात बहु भागों को स्थितिकांडकरूपसे ग्रहण करता है । इस प्रकार सहस्रों स्थितिकांडकोंके व्यतीत होनेपर और पल्योपमके संख्यातवें भागमात्र स्थितिसत्त्वके शेष रहनेपर तथा उस शेष भागके भी संख्यात बहु भाग विनष्ट हो जाने पर पल्योपमके असंख्यातवें भाग में अवस्थान योग्य दूरापकृष्टि नामकी स्थिति होती है । तत्पश्चात् शेष बचे हुए स्थितिसत्त्वके असंख्यात
१ अमणट्टिदिसत्तादो पुधत्तमेचे पुधत्तमेत्ते य | ठिदिखंडये हवंति हु चउतिविएयक्खपल्लठिदी || लब्धि. ११९.
२ क प्रतौ गदेसु ' इति पाठः ।
"
३ का दूराव किट्टी नाम ? वुच्चदे -जो हिदिसंत कमावसेसादो संखेज्जे भागे चेत्तूण ठिदिखंडए घादिखमाणे घादिदसेसं नियमा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपमाणं होण चिट्ठदि तं सव्वपच्छिमं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागप्रमाणं द्विदिसंतकम्मं दूरावकिट्टि चि भण्णदे । किं कारणमेदस्स द्विदिविसेसस्स दूरावकिहिसण्णा जादा चि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org