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२३०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१,९-८, ६. अण्णो अणुभागखंडओ, अण्णो द्विदिबंधो च आढत्तो' । पुलोकड्डिदपदेसग्गादो असंखेजगुणं पदेसमोकड्डिदूण अपुवकरणो व्व गलिदसेसं गुणसेडिं करेदि । (सुत्ते द्विदिबंधोसरणमेव परूविदं, ठिदि-अणुभाग-पदेसघादा ण परूविदा, तेसिं परूवणा ण एत्थ जुञ्जदि त्ति ? ण, तालपलंबसुत्तं व तस्स देसामासियत्तादो । एवं द्विदिबंध-ट्ठिदिखंडय-अणुभागखंडयसहस्सेसु गदेसु अणियट्टीअद्धाए चरिमसमयं पावदि ।
संपहि केवचिरेण कालेणेत्ति पुच्छाए अत्थं परूवयंतो अणियट्टीपरिणामाणं कज्जविसेसपदुप्पायणमुत्तरसुत्तं भणदि
पढमसम्मत्तमुप्पादेतो अंतोमुहुत्तमोहट्टेदि ॥ ६॥ अन्य स्थितिबन्धको आरम्भ करता है। पूर्व में अपकर्षित प्रदेशाग्रसे असंख्यातगुणित प्रदेशका अपकर्षणकर अपूर्वकरणके समान गलितावशेष गुणश्रेणीको करता है।
विशेषार्थ-गुणश्रेणी प्रारम्भ करनेके प्रथम समयमें जो गुणश्रेणी-आयामका प्रमाण था उसमें एक एक समयके बीतनेपर उसके द्वितीयादि समयोंमें गुणश्रेणी आयाम क्रमसे एक एक निषक घटता हुआ अवशेष रहता है, इसलिए उसे गलितावशेष गुणश्रेणी आयाम कहते हैं । यद्यपि यहांपर गुणश्रेणीका प्रारम्भ अपूर्वकरणके प्रथम समयसे हुआ था और तबसे यहांतक बराबर गुणश्रेणी जारी है, तथापि उसके आयामका प्रमाण क्रमशः एक एक समयप्रमाण गलित या कम होता जा रहा है, इससे यह गलितावशेष गुणश्रेणी कहलाती है । (देखो लब्धिसार बचनिका पृ. २२)
शंका-सूत्र में केवल स्थितिबन्धापसरण ही कहा है, स्थितिघात, अनुभागघात और प्रदेशघात नहीं कहे हैं, इसलिए उनकी प्ररूपणा यहांपर युक्तिसंगत या योग्य नहीं है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, तालप्रलम्बसूत्रके समान यह सूत्र देशामर्शक है । अतएव स्थितिघात आदिकी प्ररूपणा घटित हो जाती है।
इस प्रकार सहस्रों स्थितिबन्ध, स्थितिकांडकघात और अनुभागकांडकघातोंके व्यतीत होनेपर अनिवृत्तिकरणके कालका अन्तिम समय प्राप्त होता है।
अब 'कितने कालके द्वारा' इस पृच्छासूत्रके अर्थको प्ररूपण करते हुए आचार्य अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी परिणामोंके कार्य-विशेष बतलानेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं
प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करता हुआ सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव अन्तमुहूर्त काल तक हटाता है, अर्थात् अन्तरकरण करता है ॥ ६ ॥
१ अणियट्टिस्स पढमसमए अण्णं हिदिखंडयं अण्णो हिदिबंधो अण्णमणुभागखंडयं । जयध. अ. प.९५२. विदियं व तदियकरणं पडिसमयं एक एकपरिणामो । अण्णं ठिदिरसखंडे अण्णं ठिदिबंधमाणुवइ ॥ लब्धि. ८३.
२ गलिदवसेसे उदयावलिबाहिरदो दुणिक्खेवो । लब्धि. ५५.
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