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२०६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१,९-८, ४. एवमभव्वजीवजोग्गपरिणामे द्विदिअणुभागाणं खंडयघादं बहुवारं करिय गुरूवदेसबलेण तेण विणा वा अभव्यजीवजोग्गविसोहीओ वोलिय भव्यजीवजोग्गविसोहीए अधापवत्तकरणसण्णिदाए भविओ जीवो परिणमइ', तस्स जीवस्स लक्खणजाणावणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
सो पुण पंचिंदिओ सण्णी मिच्छाइट्ठी पज्जत्तओ सव्वविसुद्धों ॥४॥
जो सो सम्मत्तं पडिवज्जंतओ एइंदिओ बीइंदिओ तीइंदिओ चउरिदियो वा ण होदि, तत्थ सम्मत्तग्गहणपरिणामाभावा । तदो पंचिंदिओ चेव । तत्थ वि असण्णी ण होदि, तेसु मणेण विणा विसिट्ठणाणाणुप्पत्तीदो । तदो सो सण्णी चेव । सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी वा पढमसम्सत्तं ण पडिवज्जदि, एदेसिं तेण पज्जाएण परिणमणसत्तीए अभावादो। उवसमसेडिं चडमाणवेदगसम्माइट्ठिणो उवसमसम्मत्तं पडि
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इस प्रकार अभव्य जीवोंके योग्य परिणामके होने पर स्थिति और अनुभागोंके कांडकघातको बहु वार करके गुरूपदेशके बलसे, अथवा उसके विना भी, अभव्य जीवोंके योग्य विशुद्धियोंको व्यतीत करके भव्य जीवोंके योग्य अधःप्रवृत्तकरण संज्ञावाली विशुद्धिमें जो भव्य जीव परिणत होता है, उस जीवका लक्षण बतलानेके लिए आचार्य उत्तर सूत्र कहते है
वह प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाला जीव पंचेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्त और सर्व-विशुद्ध होता है ॥ ४ ॥
जो सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाला जीव है, वह एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय अथवा चतुरिन्द्रिय नहीं होता है, क्योंकि, उनमें सम्यक्त्वको ग्रहण करने योग्य परिणाम नहीं पाये जाते हैं। इसलिए वह पंचेन्द्रिय ही होता है। पंचेन्द्रियोंमें भी वह असंही नहीं होता है, क्योंकि, असंशी जीवोंमें मनके विना विशिष्ट ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती है। इसलिए वह संशी ही होता है। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा वेदकसम्यग्दृष्टि जीव प्रथमोपशमसम्यक्त्वको नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि, इन जीवोंके उस प्रथमोपशमसम्यक्त्वरूप पर्यायके द्वारा परिणमन होनेकी शक्तिका अभाव है। उपशमश्रेणीपर चढ़नेवाले वेदगसम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाले
१ ततो अभव्वजोग्गं परिणाम वोलिऊण भब्बो हु। करणं करेदि कमसो अधापवतं अपुव्वमणियहि ॥ लन्धि. ३३.
२ चदुगदिमिच्छो सभणी पुण्णो गभजविसुद्धसागारो। पदमुवसमं स गिण्हदि पंचमवरलद्विचरिमम्हि ॥ लन्धि , २.
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