SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्तमी चूलिया एत्तो जहण्णट्ठिदिं वण्णइस्सामो ॥ १॥ तं जहा ॥२॥ उक्कस्सविसोहीए जा द्विदी बज्झदि सा जहणिया होदि, सव्वासिं द्विदीर्ण पसत्थभावाभावादो । संकिलेसवड्डीदो सव्वपयडिट्ठिदीणं वड्डी होदि, विसोहिवड्वीदो तासिं चेव हाणी होदि। को संकिलेसो णाम ? असादबंधजोग्गपरिणामो संकिलेसो णाम । का विसोही ? सादबंधजोग्गपरिणामो । उक्कस्सद्विदीदो हेट्ठिमद्विदीयो बंधमाणस्स परिणामो विसोहि त्ति उच्चदि, जहण्णट्ठिदीदो उवरिमविदियादिद्विदीओ बंधमाणस्स परिणामो संकिलेसो त्ति के वि आइरिया भणंति, तण्ण घडदे। कुदो ? जहण्णुक्कस्सद्विदिपरिणामे मोत्तूण सेसमज्झिमट्टिदीणं सबपरिणामाणं पि संकिलेस-विसोहित्तप्पसंगादो । ण च एवं, एक्कस्स परिणामस्स लक्खणभेदेण विणा दुभावविरोहादो । अब इससे आगे जघन्य स्थितिका वर्णन करेंगे ॥१॥ वह किस प्रकार है ? ॥२॥ उत्कृष्ट विशुद्धिके द्वारा जो स्थिति बंधती है, वह जघन्य होती है, क्योंकि सर्व स्थितियोंके प्रशस्त भावका अभाव है । संक्लेशकी वृद्धिसे सर्व प्रकृतिसम्बन्धी स्थितिकी वृद्धि होती है, और विशुद्धिकी वृद्धिसे उन्हीं स्थितियोंकी हानि होती है। शंका-संक्लेश नाम किसका है ? समाधान-असाताके बंध योग्य परिणामको संक्लेश कहते हैं। शंका--विशुद्धि नाम किसका है ? समाधान-साताके बंध-योग्य परिणामको विशुद्धि कहते हैं । कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि उत्कृष्ट स्थितिसे अधस्तन स्थितियोंको बांधनेवाले जीवका परिणाम 'विशुद्धि' इस नामसे कहा जाता है, और जघन्य स्थितिसे उपरिम द्वितीय, तृतीय आदि स्थितियोंको बांधनेवाले जीवका परिणाम 'संक्लेश' कहलाता है। किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता है; क्योंकि, जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिके बांधनेके योग्य परिणामोंको छोड़कर शेष मध्यम स्थितियोंके बांधने योग्य सर्व परिणामोके भी संक्लेश और विशुद्धिताका प्रसंग आता है। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, एक परिणामके लक्षणभेदके विना द्विभाव अर्थात् दो प्रकारके होनेका विरोध है । १ सवद्विदीणमुकस्सओ दु उकस्ससंकिलेसेण । विवरीदेण जहण्णो आउगतियवज्जियाणं तु ॥ गो. क. १३४, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy