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________________ १,९-६, ३३.] चूलियाए उक्कस्सहिदीए आहारसरीरादीणि कदे अट्ठलक्खाहियकोडिमेत्ता मुहुत्ता होंति । तेसिं पमाणमेदं १०८००००० । एदेहि ओवट्टिददससागरोवमकोडाकोडिमेत्तट्ठिदी जदि एदेसि तिहं कम्माणं होज्ज, तो एदिस्से द्विदीए एगमुहुत्तमेत्ता आबाधा पावेदि । पुव्वुत्तभागहारेण दसगुणेणोपट्टिददससागरोवमकोडाकोडीमेत्ता द्विदी जदि होदि, तो मुहुत्तस्स दसमभागो आवाधा होज्ज । ण च एदेसिमेत्तियमेत्ताबाधा होदि, असंजदसम्मादिविउक्कस्सद्विदिबंधादो संतादो वि संखेज्जगुणमिच्छाइट्ठिधुवद्विदीए संखेज्जतोमुहुत्तमेत्ताबाधापसंगादो । ण च एवं, तत्तो संखेज्जगुणपंचिंदियअपज्जत्तुक्कस्सहिदीए वि अंतोमुहुत्तमेत्ताबाधुवलंभा' । तदो संखेजउसके मुहूर्त करनेपर आठ लाखसे अधिक एक कोटिप्रमाण मुहूर्त होते हैं। उनका प्रमाण यह है- १०८०००००। विशेषार्थ-चूंकि एक अहोरात्रमें ३० मुहूर्त होते हैं, तो मध्यम प्रतिपत्तिसे एक वर्षके ३६० दिनों में कितने मुहूर्त होंगे, इस प्रकार त्रैराशिक करनेपर १०८०० मुहूर्त प्राप्त होते हैं । इस प्रमाणको १००० वर्षांसे गुणा करनेपर १०८००००० एक करोड़ आठ लाख मुहूर्त सिद्ध हो जाते हैं। इन मुहूर्तोंसे अपवर्तन की गई दश कोड़ाकोड़ी सागरोपममात्र स्थिति यदि इन सूत्रोक्त तीनों कर्मोकी हो तो इस स्थितिकी एक मुहूर्तमात्र आवाधा प्राप्त होती है। उदाहरण १००००००००००००००० १०८००००० २००० =९२५९२५९२६४८ इतने सागरोपमप्रमित स्थितिकी आबाधा एक मुहूर्त होती है। __ दश-गुणित पूर्वोक्त भागहारसे अपवर्तित दश कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमित स्थिति यदि उक्त तीनों कर्मोकी हो, तो उनकी आबाधा मुहूर्तका दशवां भाग होगी। किन्तु इन आहारकशरीरादि तीनों कर्मोंकी इतनी आवाधा नहीं होती है, अन्यथा असंयतसम्यग्दृष्टिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे और उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वसे भी संख्यातगुणी मिथ्यादृष्टिकी धुवस्थितिके संख्यात अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होनेका प्रसंग आता है। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि उससे संख्यातगुणी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकी उत्कृष्ट स्थितिके १xxx संजदस्स उकस्सओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो। संजदासंजदस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो। तस्सेव उक्कस्सओ विदिबंधो संखेज्जगुणो। असंजदसम्मादिट्रिपज्जत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो। तस्सेव अपज्जत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो। तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो । तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणो । सण्णिमिच्छाइट्ठिपंचिंदियपज्जत्तयस्स जहह्मणओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो । तस्सेव अपज्जत्तयस्स जहण्णओ द्विदिबंधो संखेज्जगुणो । तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो। xxx पंचिंदियाणं सण्णीण मिच्छाइट्ठीणमपज्जत्तयाणं सत्तणं कम्माणमाउववज्जाणमंतोमुहुत्तमावाधं मोत्तूण जं पढमसमए पदेसग्गं णिनित्वं तं बहुगं । जं विदियसमए णिसित्तं पदेसग्ग तं विसेसहीणं । ज तदियसमए पदेसग्गं णिसितं तं विसेसहीणं । एवं विसेसहीणं विसेसहीण जावउकस्सेण अंतोकोडाकोडीओ ति ॥ धवला अ. प. ९४०-९४३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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