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छक्खंडागमे जीवट्ठाण [१, ९-२, ६८. संठाणं ओरालियसरीरअंगोवंगं असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणं वण्ण-गंधरस-फासं तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुव्वी अगुरुअलहुव-उवघाद-परघादउस्सास-उज्जोवं अप्पसत्थविहायगदी तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीरं थिराथिराणमेक्कदरं सुभासुभाणमेक्कदरं दुभग-दुस्सर-अणादेज्जं जसकित्ति-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणणामं । एदासिं तदियतीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं ॥ ६८ ॥
विगलिंदियाणं बंधो उदओ वि हुंडसंठाणमेवेत्ति सुत्ते उत्तं । णेदं घडदे, विगलिंदियाणं छस्संठाणुवलंभा ? ण एस दोसो, सव्वावयवेसु णियदसरूवपंचसंठाणेसु वे. तिण्णि-चदु-पंचसंठाणाणं संजोगेण हुंडसंठाणमणेयभेदभिण्णमुप्पज्जदि । ण च पंचसंहाणाणि' पञ्चवयवमेरिसाणि त्ति णज्जते, संपहि तथाविधोवदेसाभावा । ण च तेसु अविण्णादेसु एदेसिमेसो संजोगो त्ति णादुं सक्किज्जदे । तदो सव्वे वि विंगलिंदिया हुंड
हंडसंस्थान', औदारिकशरीर-अंगोपांग', असंप्राप्तामृपाटिकासंहनन', वर्ण, गन्ध', रस", स्पर्श, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी', अगुरुलघु", उपघात", परघात", उच्छास", उद्योत", अप्रशस्तविहायोगति', वस", बादर', पर्याप्त", प्रत्येकशरीर', स्थिर और अस्थिर इन दोनोंमेंसे कोई एक", शुभ और अशुभ इन दोनोंमेंसे कोई एक", दुर्भग', दुःस्वर", अनादेय", यश-कीर्ति और अयश कीर्ति इन दोनोंमेंसे कोई एक", तथा निर्माणनामकर्म । इन तृतीय तीस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है॥ ६८॥
शंका-विकलेन्द्रिय जीवोंके हुंडसंस्थान इस एक प्रकृतिका ही बन्ध और उदय होता है, यह सूत्र में कहा है। किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि, विकलेन्द्रिय जीवोंके छह संस्थान पाये जाते हैं ?
समाधान--यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, सर्व अवयवोंमें नियत स्वरूपवाले पांच संस्थानोंके होनेपर दो, तीन, चार, और पांच संस्थानोंके संयोगसे हुंडसंस्थान अनेक भेद-भिन्न उत्पन्न होता है। वे पांच संस्थान प्रत्येक अवयवके प्रति इस प्रकारके आकारवाले होते हैं, यह नहीं जाना जाता है, क्योंकि, आज उस प्रकारके उपदेशका अभाव है । और, उन संयोगी भेदोंके नहीं ज्ञात होनेपर इन जीवोंके 'अमुक संस्थानोंके संयोगात्मक यह भंग है, यह नहीं जाना जा सकता है। अतएव सभी विकलेन्द्रिय
१ प्रतिषु 'पंच संहाणाणि' इति पाठो नास्ति । म प्रतौ तु 'पंच' हाणाणि ' इति पाठः। २ प्रतिषु ' सव्वेहि' इति पाठः।
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