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________________ ७८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,९-१, ४६. मित्येकोऽर्थः । जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं णीचगोदं होदि तं णीचगोदं णाम' । अंतराइयस्स कम्मस्स पंच पयडीओ, दाणंतराइयं लाहंतराइयं भोगंतराइयं परिभोगंतराइयं वीरियंतराइयं चेदि ॥४६॥ जस्स कम्मस्स उदएण देंतस्स विग्धं होदि तं दाणंतराइयं । जस्स कम्मस्स उदएण लाहस्स विग्धं होदि तल्लाहंतराइयं । जस्स कम्मस्स उदएण भोगस्स विग्धं होदि तं भोगंतराइयं । सकृद् भुज्यत इति भोगः, ताम्बूलाशन-पानादिः । जस्स कम्मस्स उदएण परिभोगस्स विग्धं होदि तं परिभोगंतराइयं । पुनः पुनः परिभुज्यत इति परिभोगः, स्त्रीवस्त्राभरणादिः ( जस्स कम्मस्स उदएण वीरियस्स विग्धं होदि तं वीरियंतराइयं णाम । वीर्य बलं शुक्रमित्येकोऽर्थः ।। एवं पयडिसमुक्कित्तणं णाम पढमा चूलिया समत्ता । वंश और संतान, ये सब एकार्थवाचक नाम है । जिस कर्मके उदयसे जीवोंके नीचगोत्र होता है, उसे नीचगोत्रनामकर्म कहते हैं। अन्तरायकर्मकी पांच प्रकृतियां हैं - दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, परिभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ॥ ४६ ॥ जिस कर्मके उदयसे दान देते हुए जीवके विघ्न होता है, वह दानान्तरायकर्म है। जिस कर्मके उदयसे लाभमें विघ्न होता है, वह लाभान्तरायकर्म है । जिस कर्मके उदयसे भोगमें विघ्न होता है, वह भोगान्तरायकर्म है । जो वस्तु एक वार भोगी जाती है वह भोग है, जैसे ताम्बूल, भोजन, पान आदि । जिस कर्मके उदयसे परिभोगमें विघ्न होता है, वह परिभोगान्तरायकर्म है । जो वस्तु पुनः पुनः भोगी जाती है वह परिभोग है, जैसे स्त्री, वस्त्र, आभूषण आदि । जिस कर्मके उदयसे वीर्यमें विघ्न होता है, वह वीर्यान्तरायकर्म है । वीर्य, बल, और शुक्र, ये सब एकार्थक नाम हैं। इस प्रकार प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामकी प्रथम चूलिका समाप्त हुई । १ यदुदयाद गर्हितेषु कुलेषु जन्म तन्नीचैगोत्रम् । स. सि.; त. रा. वा., त. श्लो. वा. ८, १२. २ दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् । त. सू. ८, १३. ३ भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः । उपभोगोऽशनवसनप्रभृतिः पंचेन्द्रियो विषयः॥ रत्नक. ३, ३७. भोगः सेव्यः सकृदुपभोगस्तु पुनः पुनः स्रगम्बरवत् ॥ सागार. ५, १४. ४ यदुदयादातुकामोऽपि न प्रयच्छति, लब्धुकामोऽपि न लभते, भोक्तुमिच्छन्नपि न भुत्ते, उपभोक्तुमामिवांछन्नपि नोपभुक्त, उत्साहितुकामोऽपि नोत्सहते, त एते पंचान्तरायस्य भेदाः । स. सि.; त.रा. वा. ८, १३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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