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________________ १, ९-१, ३६.] चूलियाए पगडिसमुक्त्तिणे णाम उत्तरपयडीओ [७३ जस्स कम्मस्स उदएण ओरालियसरीरस्स अंगोवंग-पच्चंगाणि उप्पजंति तं ओरालियसरीरअंगोवंगणामं । एवं सेसदोसरीरअंगोवंगाणं पि अत्थो वत्तव्यो । तेजा-कम्मइयसरीरअंगोवंगाणि णत्थि, तेसिं कर-चरण-गीवादिअवयवाभावा । ___जं तं सरीरसंघडणणामकम्मं तं छविहं, वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणणामं वज्जणारायणसरीरसंघडणणामं णारायणसरीरसंघडणणामं अद्धणारायणसरीरसंघडणणामं खीलियसरीरसंघडणणामं असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणणामं चेदि ॥ ३६॥ . संहननमस्थिसंचयः, ऋषभो वेष्टनम् , वज्रवदभेद्यत्वाद्वऋषभः । बज्रवन्नाराचः वज्रनाराचः, तौ द्वावपि यस्मिन् वज्रशरीरसंहनने तद्वऋषभवज्रनाराचशरीरसंहननम् । जस्स कम्मस्स उदएण वज्जहड्डाई वज्जवेटेण वेट्ठियाई बज्जणाराएण खीलियाई च होंति तं वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणमिदि उत्तं होदि। एसो चेव हड्डवंधो वज्जरिसहवज्जिओ जस्स कम्मस्स उदएण होदि तं कम्मं वजणारायणसरीरसंघडणमिदि भण्णदे। जिस कर्मके उदयसे औदारिकशरीर के अंग, उपांग और प्रत्यंग उत्पन्न होते हैं, वह औदारिकशरीर-अंगोपांगनामकर्म है। इसी प्रकार शेष दो अर्थात् वैक्रियिक और आहारक शरीरसम्बन्धी अंगोपांगोंका भी अर्थ कहना चाहिए। तैजस और कार्मणशरीरके अंगोपांग नहीं होते हैं, क्योंकि, उनके हाथ, पांव, गला आदि अवयवोंका अभाव है। जो शरीरसंहनन नामकर्म है वह छह प्रकारका है-वज्रऋषभवज्रनाराचशरीरसंहनन नामकर्म, वज्रनाराचशरीरसंहनन नामकर्म, नाराचशरीरसंहनन नामकर्म, अर्धनाराचशरीरसंहनन नामकर्म, कीलकशरीरमंहनन नामकर्म और असंग्राप्तासृपाटिकाशरीरसंहनन नामकर्म ॥ ३६॥ हड्डियोंके संचयको संहनन कहते हैं । वेष्टनको ऋषभ कहते हैं। वज्रके समान अभेद्य होनेसे 'वज्रऋषभ' कहलाता है । वज्रके समान जो नाराच है वह वज्रनाराच कहलाता है । ये दोनों ही, अर्थात् वज्रऋषभ और वज्रनाराच, जिस वज्रशरीरसंहननमें होते हैं, वह वज्रऋषभवज्रनाराच शरीरसंहनन है । जिस कर्मके उदयसे वज्रमय हड्डियां वज्रमय वेष्टनसे वेष्टित और वज्रमय नाराचसे कीलित होती हैं, वह वज्रऋषभवज्रनाराच शरीरसंहनन है, ऐसा अर्थ कहा गया है। यह उपर्युक्त अस्थिबन्ध ही जिस कर्मके उदयसे वज्रऋषभसे रहित होता है, वह कर्म 'वज्रनाराचशरीरसंहनन' इस .................................. १तत्र वाकरोभयास्थिसंधि प्रत्येक मध्ये वलयबन्धनं सनाराचं सुसंहतं वज्रर्षमनाराचसंहननम् । त.रा.वा. ८, ३१.xxx रिसहो पट्टो अ कीलिआ वजं । उभओ मकडबंधो नागयं इममुरालंगे। क. गं. १, ३९. २ तदेव बलयबंधनविरहितं वज्रनाराचसंहननं । त. रा. वा. ८, ११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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