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१, ९–१, २८. ]
चूलियाए पगडिसमुक्कित्तणे णाम - उत्तरपयडीओ
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आणुपुत्री ठाणहि वावदा कधं गमणहेऊ होदि त्ति चे ण, तिस्से दोसु विकज्जे वावारे विरोहाभावा । अचत्तसरीरस्स जीवस्स विग्गहगईए उज्जुगईए चा जंगमणं तं कस्स फलं ? ण, तस्स पुव्वखेत्तपरिच्चायाभावेण गमणाभावा । जीवपदेसाणं जो पसरो सोण णिक्कारणो, तस्स आउअसंतफलत्तादो । वण्ण-गंधरस- फासकम्माणं वण्ण-गंध-रस-पासा सकारणा णिकारणा वा । पढमपक्खे अणवत्था । वोकमवण्ण-गंध-रस- फासा विणिकारणा होंतु, विसेसाभावा । एत्थ परिहारो उच्चदे - ण पढमे पक्खे उत्तदोसो, अणन्भुवगमादो । ण विदियपक्खदोसो वि, कालदव्यं व दुस्सहावत्तादो एदेसिमुभयत्थ वावारविरोहाभावा ।
शंका- आकार- विशेषको बनाये रखने में व्यापार करनेवाली आनुपूर्वी इच्छित गति में गमनका कारण कैसे होती है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, आनुपूर्वीका दोनों भी कार्योंके व्यापार में विरोधका अभाव है । अर्थात् विग्रहगति में आकार- विशेषको बनाये रखना और इच्छित-गतिमें गमन कराना, ये दोनों ही आनुपूर्वी नामकर्मके कार्य हैं।
शंका- पूर्व शरीर को न छोड़ते हुए जीवके विग्रहगतिमें, अथवा ऋजुगतिमें जो गमन होता है, वह किस कर्मका फल है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, पूर्वशरीरको नहीं छोड़नेवाले उस जीवके पूर्व क्षेत्रके परित्यागके अभाव से गमनका अभाव है। पूर्व शरीरको नहीं छोड़ने पर भी जीव- प्रदेशोंका जो प्रसार होता है वह निष्कारण नहीं हैं, क्योंकि, वह आगामी भवसम्बन्धी आयुकर्मके सका फल है ।
शंका- वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नामकमोंके वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श सकारण होते हैं, या निष्कारण । प्रथम पक्षमें अनवस्था दोष आता है । द्वितीय पक्षके मानने पर शेष नोकमौके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श भी निष्कारण होना चाहिए, क्योंकि, दोनों में कोई भेद नहीं है ?
समाधान - यहां पर उक्त शंकाका परिहार कहते हैं- प्रथम पक्षमें कहा गया अनवस्था दोष तो प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, वैसा माना नहीं गया है । न द्वितीय पक्षमें दिया गया दोष भी प्राप्त होता है, क्योंकि, कालद्रव्यके समान द्विस्वभावी होनेसे इन वर्णादिकके उभयत्र व्यापार करनेमें कोई विरोध नहीं है ।
विशेषार्थ - जिस प्रकार कालद्रव्य अपने आपके परिवर्तन और अन्य द्रव्योंके परिवर्तनका कारण होता है, उसी प्रकार वर्णादिक नामकर्म भी अपने वर्णादिकके तथा अपने से भिन्न परपुलोंके वर्णादिकके कारण होते हैं । इसीलिए इनको कालद्रव्यके समान द्विस्वभावी कहा है ।
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