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________________ ५६ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ९–१, २८. कारणे कज्जुबयारादो (जदि पासणामकम्मं ण होज्ज तो जीवसरीरमणियदपासं होज्ज । णच एवं सपुप्फफलकमलणाला दिसु णियदफा सुवलंभादो । पुच्वुत्तरसरीराणमंतरे एगदो तिणि समए वट्टमाणजीवस्स जस्स कम्मस्स उदएण जीवपदेसाणं विसिडो संठाणविसेसो होदि, तस्स आणुपुच्चि त्ति सण्णा । संठाणणामकम्मादो संठाणं होदिति आणुपुन्त्रिपरियप्पणा णिरत्थिया चेण, तस्स सरीरगहिदपढमसमयादो उवरि उदयमागच्छमाणस्स विग्गहकाले उदयाभावा । जदि आणुपुव्विकम्मं ण होज तो विग्गहकाले अणियदसंठाणो जीवो होज्ज । ण च एवं, जादिपडिणियदसंठाणस्स तत्थुवलं भादो । पुच्चसरीरं छड्डिय सरीरंतरमघेत्तूण विदजीवस्स इच्छिदगदिगमणं कुदो होदि ! आणुपुच्चीदो । विहायगदीदो किण्ण होदि ? ण, तस्स तिन्हं सरीराणमुदएण विणा उदयाभावा । यह संज्ञा है । यदि स्पर्शनामकर्म न हो, तो जीवका शरीर अनियत स्पर्शवाला होगा । किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, कमलके स्वपुष्प, फल और कमल-नाल आदि में नियत स्पर्श पाया जाता है। पूर्व और उत्तर शरीरोंके अन्तरालवर्त्ती एक, दो और तीन समय में वर्तमान जीवके जिस कर्मके उदयसे जीव-प्रदेशोंका विशिष्ट आकार-विशेष होता है, उस कर्मकी 'आनुपूर्वी ' यह संज्ञा है । शंका – संस्थाननामकर्मसे आकार- विशेष उत्पन्न होता है, इसलिए आनुपूर्वीकी परिकल्पना निरर्थक है ? - समाधान – नहीं, क्योंकि, शरीर ग्रहण करनेके प्रथम समयसे ऊपर उदयमें आनेवाले उस संस्थाननामकर्मका विग्रहगतिके कालमें उदयका अभाव पाया जाता है । यदि आनुपूर्वी नामकर्म न हो, तो विग्रहगतिके कालमें जीव अनियत संस्थानवाला हो जायगा, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, जाति-प्रतिनियत संस्थान विग्रह - कालमें पाया जाता है । शंका- पूर्व शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरको नहीं ग्रहण करके स्थित जीवका इच्छित गति में गमन किस कर्मसे होता है ? समाधान – आनुपूर्वी नामकर्मसे इच्छित गतिमें गमन होता है । शंका- विहायोगतिनामकर्मसे इच्छित गतिमें गमन क्यों नहीं होता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, विहायोगतिनामकर्मका औदारिकादि तीनों शरीरोंके उदयके विना उदय नहीं होता है । १ पूर्वशरीराकाराविनाशो यस्योदयाद्भवति तदानुपूर्व्यनाम स. सि. त. रा. वा : त. लो. वा. ८, ११. २ ननु च तन्निर्माणनामकर्मसाध्यं फलं नानुपूर्व्यनामोदयकृतं ? नैष दोषः, पूर्वायुरुच्छेदसमकाल एव पूर्वशरीरनिवृत्तौ निर्माणनामोदयो निवर्तत । तस्मिन्निवृत्तेऽष्टविधकर्म तैजसकार्मणशरीरसंबंधिन आत्मनः पूर्वशरीरसंस्थानाविनाशकारणमानुपूर्व्यनामोदयमुपैति । तस्य कालो विग्रहगतौ जघन्येनैकः समयः, उत्कर्षेण त्रयः समयाः । ऋजुगतौ तु पूर्वशरीराकारविनाशे सति उत्तरशरीरयोग्यपुद्गलग्रहणान्नमणिनाम कर्मोदयव्यापारः । त. रा. वा. ८, ११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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