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________________ (४१) यहां विक्रमांक शकराजका उल्लेख है और उसका तात्पर्य स्पष्टतः शकसंवत्के संस्थापकसे है । उक्त अवतरणपर डा. पाठकने टिप्पणी की है कि यह उल्लेख त्रुटि-पूर्ण है । उन्होंने ऐसा समझकर यह कहा ज्ञात होता है कि उस शब्दका तात्पर्य विक्रम संवत्से ही हो सकता है। किंतु ऐसा नहीं है । शक संवत्की सूचनामें ही लेखकने विक्रमका नाम जोड़ा है, और उसे शकराजकी उपाधि कहा है जो सर्वथा संभव है । शक और विक्रमके संबन्धकी कालगणनाके विषयमें जैन लेखकोंमें कुछ भ्रम रहा है यह तो अवश्य है। त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें जो शककी उत्पत्ति वीरनिर्वाणसे ४६१ वर्ष पश्चात् या विकल्पसे ६०५ वर्ष पश्चात् बतलाई गई है उसमें यही भ्रम या मान्यता कार्यकारी है, क्योंकि, वीर नि. से ४६१ वां वर्ष विक्रमके राज्यमें पड़ता है और ६०५ वर्षसे शककाल प्रारंभ होता है। ऐसी अवस्था प्रस्तुत गाथामें यदि — विक्कमरायम्हि ' से शकसंवत्की सूचना ही हो तो हम कह सकते हैं कि उस गाथाके शुद्ध पाठमें धवलाके समाप्त होनेका समय शक संवत् ७३८ निर्दिष्ट रहा है। इस निर्णयमें एक कठिनाई उपस्थित होती है। शक संवत् ७३८ में लिखे गये नवसारीके ताम्रपटमें जगतंगके उत्तराधिकारी अमोघवर्षके राज्यका उल्लेख है। यही नहीं, किंतु शक संवत् ७८८ के सिरूरसे मिले हुए ताम्रपटमें अमोघवर्षके राज्यके ५२ वें वर्षका उल्लेख है, जिससे ज्ञात होता है कि अमोघवर्षका राज्य ७३७ से प्रारंभ हो गया था। तब फिर शक ७३८ में जगतुंगका उल्लेख किस प्रकार किया जा सकता है ? इस प्रश्नपर विचार करते हुए हमारी दृष्टि गाथा नं. ७ में 'जगतुंगदेवरों के अनन्तर आये हुए 'रियम्हि' शब्दपर जाती है जिसका अर्थ होता है 'ऋते' या · रिक्ते'। संभवतः उसीसे कुछ पूर्व जगतुंगदेवका राज्य गत हुआ था और अमोघवर्ष सिंहासनारूढ़ हुए थे। इस कल्पनासे आगे गाथा नं. ९ में जो बोद्दणराय नरेन्द्रका उल्लेख है, उसकी उलझन भी सुलझ जाती है । बोद्दणराय संभवतः अमोघवर्षका ही उपनाम होगा। या वह वडिगकाही रूप हो और वड्डिग अमोघवर्पका उपनाम हो । अमोघवर्ष तृतीयका उपनाम वद्दिग या वड्डिगका तो उल्लेख मिलता ही है । यदि यह कल्पना ठीक हो तो वीरसेन स्वामीके इन उल्लेखोंका यह तात्पर्य निकलता है कि उन्होंने धवला टीका शक संवत् ७३८ में समाप्त की जब जगतुंगदेवका राज्य पूरा हो चुका था और बोदणराय ( अमोघवर्ष ) राजगद्दीपर बैठ चुके थे। 'जगतुंगदेवरजे रियम्हि' और 'बोदणरायणरिंदे णरिंदचूडामणिम्हि मुंजते ' पाठोंपर ध्यान देनेसे यह कल्पना बहुत कुछ पुष्ट हो जाती है । १ वीरजिणं सिद्धिगदे च उ-सद-इगसहि वास-परिमाणे | कालम्मि अदिकते उप्पण्णो एत्थ सगराओ ॥८६॥ णिव्वाणे वीरजिणे कव्वास-सदेसु पंच-वरिसेस । पण-मासेसु गदेस संजादो सगणिओ अहवा ।। ८९॥ तिलोयपण्णति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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