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________________ (४०) अब कुछ प्रशस्तिकी उन शंकास्पद गाथाओंपर विचार कीजिये । गाथा नं. ६ में 'अद्वतीसंम्हि ' और — विक्कमरायम्हि ' सुस्पष्ट हैं। शताब्दिकी सूचनाके अभावमें अड़तीसवां वर्ष हम जगतुंगदेवके राज्यका ले सकते थे । किंतु न तो उसका विक्रमराजसे कुछ संबन्ध बैठता और न जगतुंगका राज्य ही ३८ वर्ष रहा । जैसा हम ऊपर बतला चुके हैं उनका राज्य केवल २० वर्ष के लगभग रहा था । अतएव इस ३८ वर्ष का संबन्ध विक्रमसेही होना चाहिये । गाथामें शतसूचक शब्द गड़बड़ीमें है । किंतु जान पड़ता है लेखकका तात्पर्य कुछ सौ ३८ वर्ष विक्रम संवत्के कहनेका है। किंतु विक्रम संवत्के अनुसार जगतुंगका राज्य ८५१ से ८७० के लगभग आता है । अतः उसके अनुसार ३८ के अंककी कुछ सार्थकता नहीं बैठती। यह भी कुछ साधारण नहीं जान पड़ता कि वीरसेनने यहां विक्रम संवत्का उल्लेख किया हो। उन्होंने जहां जहां वीर निर्वाणकी काल-गणना दी है वहां शक-कालका ही उल्लेख किया है । उनके शिष्य जिनसेनने जयधवलाकी समाप्तिका काल शक गणनानुसार ही सूचित किया है । दक्षिणके प्रायः समस्त जैन लेखकोंने शककालका ही उल्लेख किया है । ऐसी अवस्थामें आश्चर्य नहीं जो यहां भी लेखकका अभिप्राय शक कालसे हो । यदि हम उक्त संख्या ३८ के साथ सातसौ और मिला दें और ७३८ शक संवत्के लें तो यह काल जगतुंगके ज्ञात काल अर्थात् शक संवत् ७३५ के बहुत समीप आ जाता है । अब प्रश्न यह है कि जब गाथामें विक्रमराजका स्पष्ट उल्लेख है तव हम उसे शक संवत् अनुमान कैसे कर सकते हैं ? पर खोज करनेसे जान पड़ता है कि अनेक जैन लेखकोंने प्राचीन कालसे शक कालके साथ भी विक्रमका नाम जोड़ रक्खा है। अकलंकचरितमें अकलंकके बौद्धोंके साथ शास्त्रार्थका समय इसप्रकार बतलाया है। विक्रमार्कशकाब्दीयशतसप्तप्रमाजुषि । कालेऽकलङ्कयतिनो बौद्धैर्वादो महानभूत् ।। यद्यपि इस विषयमें मतभेद है कि यहां लेखकका अभिप्राय विक्रम संवत से है या शकसे, किंतु यह तो स्पष्ट है कि विक्रम और शकका संबन्ध एक ही काल गणनासे जोड़ा गया है। यह भ्रमवश हो और चाहे किसी मान्यतानुसार । यह भी बात नहीं है कि अकेला ही इसप्रकारका उदाहरण हो । त्रिलोकसारकी गाथा नं. ८५० की टीका करते हुए टीकाकार श्री माधवचन्द्र विद्य लिखते हैं ' श्रीवीरनाथनिवृत्तेः सकाशात् पंचोत्तरषट्शतवर्षाणि (६०५) पंचमासयुतानि गत्वा पश्चात् विक्रमांकशकराजो जायते । तत उपरि चतुर्णवत्युत्तरत्रिशत (३९४ ) वर्षाणि सप्तमासाधिकानि गत्वा पश्चात् कल्की जायते ' । 1 Inscriptions at Sravana Belgola, Intro. p. 84 and न्यायं कु. चं भूमिका पृ. १०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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