SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 509
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं चागी भदो चोक्खो उज्जुत्र - कम्मो य खमइ बहुअं हि । साहु-गुरु-पूज- णिरदो लक्खणमेदं तु पम्मस्स' ॥ २०७ ॥ उ कुणइ पक्खवायं ण वि य णिदाणं समो य सब्बे । णत्थि य राय-दोसो हो वि य सुक्क - लेस्सस्स ॥ २०८ ॥ पड्लेश्यातीताः अलेश्याः । उक्तं च किण्हादि - लेस्स - रहिदा संसार - विणिग्गया अणंत-सुहा । सिद्धि-पुरं संपत्ता अलेस्सिया ते मुणेया ॥ २०९ ॥ लेश्यानां गुणस्थाननिरूपणार्थमाह किण्हलेस्सिया णील्लेस्सिया काउलेस्सिया एइंदिय - पहुडि जाव असंजद- सम्माइट्टि ति ॥ १३७ ॥ ४ [ १, १, १३७. जो त्यागी है, भद्रपरिणामी है, निरन्तर कार्य करनेमें उद्यत रहता है, जो अनेक प्रकार के कष्टप्रद और अनिष्ट उपसगको क्षमा कर देता है, और साधु तथा गुरुजनों की पूजा में रत रहता है, ये सब पद्मलेश्यावाले के लक्षण हैं ॥ २०७ ॥ जो पक्षपात नहीं करता है, निदान नहीं बांधता है, सबके साथ समान व्यवहार करता है, इष्ट और अनिष्ट पदार्थोंके विषयमें राग और द्वेवसे राहत है तथा स्त्री, पुत्र और मित्र आदिमें स्नेहरहित है ये सब शुक्ललेश्यावाले के लक्षण हैं ॥ २०८ ॥ जो छह लेश्याओंसे रहित हैं उन्हें लेश्यारहित जीव कहते हैं । कहा भी है जो कृष्णादि लेश्याओंसे राहत हैं, पंत्र परिवर्तनरूप संसारले पार हो गये हैं, जो अतीन्द्रिय और अनन्त सुखको प्राप्त हैं और जो आत्मोपलब्धिरूप सिद्धिपुरीको प्राप्त हो गये हैं उन्हें लेश्यारहित जानना चाहिये ॥ २०९ ॥ अब लेश्याओंके गुणस्थान बतलानेके लिये सूत्र कहते हैं कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्यावाले जीव एकेन्द्रियसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते हैं ॥ १३७ ॥ १ गो. जी. ५१६. पयणुकोहमाणे य मायालोमे य पयणुए। पसंतचित्ते दंतप्पा जोगवं उवहाणवं ॥ ता पणुवाई य उवसंते जिइदिए । एयजोगसमाउत्तो पहले तु परिणमे ॥ उत्त. ३४. २९-३०. २ गो जी. ५१७. अट्टरुद्दाणि वाजेत्ता धम्मसुकाणि झायए । पसतचिते दतप्पा समिए गुत्ते य गुत्तिसु ॥ सरागे वीयरागे वा उवसते जिइदिए । एयजोगसमाउती सुकलेस तु परिणमे ॥ उत्त. ३४. ३१-३२. ३. गो. जी. ५५६. ४ लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकपोतलेश्यासु मिथ्यादृष्ट्यादीनि असंयतसम्यग्दृष्टयन्तानि सन्ति । स. सि. १.८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy