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________________ १, १, १३६. ] ___संत-परूवणाणुयोगद्दारे लेस्सामग्गणापरूवणं । णिद्दा-बंचण-बहुलो धण-धणे होइ तिम्व-सण्णो य । लक्खणमेदं भणियं समासदो णील-लेस्सस्स' ॥ २०२ ॥ रूसदि जिंददि अण्णे दूसदि बहुसो य सोय-भय-बहुलो । असुयदि परिभवदि परं पसंसदि य अप्पयं बहुसो ॥२०३।। ण य पत्तियइ परं सो अप्पाणमिव परं पि मण्णंतो।। तूसदि अभिल्थुवंतो ण य जाणइ हाणि-वडीओ ॥ २०४॥ मरणं पत्थेइ रणे देदि सुबहु हि थुव्यमाणो दु।। ण गणइ अकज-कजं लक्खणमेदं तु काउस्स ॥२०५॥ जाणइ कजमकर्ज सेयमसेयं च सव्व-सम-पासी । दय-दाण-रदो य मिदू लक्खणमेदं तु तेउस्स ॥ २०६ ॥ जो अतिनिद्रालु हो, दूसरोंको ठगनेमें अतिदक्ष हो, और धन-धान्यके विषयमें जिसकी अति तीव्र लालसा हो, ये सब नीललेश्यावालेके संक्षेपसे लक्षण कहे गये हैं। २०२॥ जो दूसरोंके ऊपर क्रोध करता है, दूसरेकी निन्दा करता है, अनेक प्रकारसे दूसरोंको दुख देता है, अथवा, दूसरोंको दोष लगाता है, अत्यधिक शोक और भयसे व्याप्त रहता है, दूसरोंको सहन नहीं करता है, दूसरोंका पराभव करता है, अपनी नाना प्रकारसे प्रशंसा करता है, दूसरेके ऊपर विश्वास नहीं करता है, अपने समान दूसरेको भी मानता है, स्तुति करनेवालेके ऊपर संतुष्ट हो जाता है. अपनी और दूसरेकी हानि और वृद्धिको नहीं जानता है, युद्धमें मरनेकी प्रार्थना करता है, स्तुति करनेवालेको बहुत धन दे डालता है, और कार्य अकार्यकी कुछ भी गणना नहीं करता है, ये सब कापोतलेश्यावालेके लक्षण हैं ॥२०३-२०५॥ जो कार्य-अकार्य और सेव्य-असेव्यको जानता है, सबके विषयमें समदर्शी रहता है, दया और दानमें तत्पर रहता है, और मन, वचन तथा कायसे कोमलपरिणामी होता है ये सब पीतलेश्यावालेके लक्षण हैं ॥२०६॥ .............. १ गो. जी. ५११. इस्सा अमरिस अतवो अविञ्जमाया अहीरिया। गेही पओसे य सटे पमत्ते रसलोलुए । सायगवेसए य आरंभाओ अविरओ खुड्डो साहस्सिओ नरो । एयजोगसमाउत्तो नीललेसं तु परिणमे ॥ उत्त. ३४. २३-२४. २ गो. जी. ५१३. ३ गो. जी. ५१३. ४ गो. जी. ५१४. वंके यकसमायारे नियडिल्ले अणुज्जुए। पलिउंचगओवाहिए मिच्छादिट्ठी अणारिए । उफासगदुट्टवाई य तेणे यावि य मच्छरी । एयजोगसमाउत्तो काऊलेसं तु परिणमे ॥ उत्त. ३४. २५.२६. ५ गो. जी. ५१५. नीयावत्ती अचवले अमाई अकुऊहले। विणीयविणए दंते जोगवं उवहाण ॥ पियधम्मे दधम्मे वञ्जमीरू हिएसए । एयजोगसमाउत्तो तेऊलेस तु परिणमे || उत्त. ३४.२७-२८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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