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________________ ३८४ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, १, १३४, ज्ञानम्, स्वतोऽभिन्नवस्तुपरिच्छेदकं दर्शनम्, ततो नानयोरेकत्वमिति । ज्ञानदर्शनयोरक्रमेण प्रवृत्तिः किन्न स्यादिति चेत् किमिति न भवति ? भवत्येव क्षीणावरणे द्वयोरक्रमेण प्रवृत्त्युपलम्भात् । भवतु छद्मस्थावस्थायामप्यक्रमेण क्षीणावरणे इव तयोः प्रवृत्तिरिति चेन्न, आवरणानिरुद्धाक्रमयोरक्रमवृत्तिविरोधात् । अस्वसंविद्रूपो न कदाचिदप्यात्मोपलभ्यत इति चेन्न, बहिरङ्गोपयोगावस्थायामन्तरङ्गोपयोगानुपलम्भात् । श्रुतदर्शनं किमिति नोच्यत इति चेन्न, तस्य मतिपूर्वकस्य दर्शनपूर्वकत्वविरोधात् । यदि बहिरङ्गार्थ सामान्यविषयं दर्शनमभविष्यत्तदा श्रुतज्ञानदर्शनमपि समभविष्यत् । अवधिदर्शनप्रदेशप्रतिपादनार्थमाह ओधि- दंसणी असँजदसम्माइट्टि - पहुडि जान खीण- कसायवीयराय-छदुमत्था ति ॥ १३४ ॥ शंका - ज्ञान और दर्शनकी युगपत् प्रवृत्ति क्यों नहीं होती ? समाधान - कैसे नहीं होती, होती ही है, क्योंकि, जिनके आवरण कर्म नष्ट हो गये हैं ऐसे तेरहवें आदि गुणस्थानवर्ती जीवों में ज्ञान और दर्शन इन दोनोंकी युगवत् प्रवृत्ति पाई जाती है । शंका-- आवरणकर्मसे रहित जीवों में जिसप्रकार ज्ञान और दर्शन की युगपत् प्रवृत्ति पाई जाती है, उसीप्रकार छद्मस्थ अवस्थामें भी उन दोनोंकी एक साथ प्रवृत्ति होओ ? समाधान- नहीं, क्योंकि, आवरणकर्मके उदयसे जिनकी युगपत् प्रवृत्ति करने की शक्ति रुक गई है ऐसे छद्मस्थ जीवोंके ज्ञान और दर्शनमें युगपत् प्रवृत्ति माननेमें विरोध आता है । शंका- अपने आपके संवेदनसे रहित आत्माकी तो कभी भी उपलब्धि नहीं होती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, बहिरंग पदार्थोंकी उपयोगरूप अवस्था में अन्तरंग पदार्थका उपयोग नहीं पाया जाता है । शंका- श्रुत दर्शन क्यों नहीं कहा ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, मतिज्ञानपूर्वक होनेवाले श्रुतज्ञानको दर्शन पूर्वक मानने में विरोध आता है । दूसरे यदि बहिरंग पदार्थको सामान्यरूपसे विषय करनेवाला दर्शन होता तो श्रुतज्ञानसंबन्धी दर्शनभी होता । परंतु ऐसा नहीं है, इसलिये श्रुतज्ञानके पहले दर्शन नहीं होता है । अब अवधिज्ञानसंबन्धी गुणस्थानोंके प्रतिपादन करनेकेलिये सूत्र कहते हैंअवधिदर्शनवाले जीव असंयत सम्यग्दृष्टिसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुण १ अवधिदर्शने असंयतसम्यदृष्ट्यादीनि क्षीणकषायान्तानि । स. सि. १.८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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