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________________ १, १, १३३. ] संत-परूवणाणुयोगद्दारे दंसणमग्गणापरूवणं चक्षुर्दर्शनाध्यानप्रतिपादनार्थमाह चक्खु दंसणी चउरिदिय- पहुडि जाव खीण- कसाय - वीयराय- छदुमत्था ति ॥ १३२ ॥ सुगममेतत् । [ ३८३ अचक्षुर्दर्शनस्याधिपतिप्रतिपादनार्थमाह अचक्खु - दंसणी एइंदिय - पहुडि जाव खीण-कसायचीयरायछदुमत्था त्तिं ॥ १३३॥ दृष्टान्तस्मरणमचक्षुर्दर्शनमिति केचिदाचक्षते तन्न घटते एकेन्द्रियेषु चक्षुरभावतोऽचक्षुर्दर्शनस्याभावासञ्जननात् । दृष्टशब्द उपलम्भवाचक इति चेन्न, उपलब्धार्थ - विषयस्मृतेर्दर्शनत्वेऽङ्गीक्रियमाणे मनसो निर्विषयतापत्तेः । ततः स्वरूपसंवेदनं दर्शनमित्यङ्गीकर्तव्यम् । ज्ञानमेव द्विस्वभावं किन्न स्यादिति चेन्न, स्वस्माद्भिन्नवस्तुपरिच्छेदकं अब चक्षुदर्शन संबन्धी गुणस्थानोंके प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैंचक्षुदर्शन उपयोगवाले जीव चतुरिन्द्रियसे लेकर क्षीणकषाय-छास्थ- वीतराग गुणस्थान तक होते है ॥ १३२ ॥ इसका अर्थ सरल है । अब अचदर्शन के स्वामी बतलानेके लिये सूत्र कहते हैं अचक्षुदर्शन उपयोगवाले जीव एकेन्द्रियसे लेकर क्षीणकषाय- वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं ॥ १३३ ॥ अर्थात् देखे हुए पदार्थका स्मरण करना अचक्षुदर्शन है, इसप्रकार कितने ही पुरुष कहते हैं । परंतु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि, ऐसा माननेपर एकेन्द्रिय जीवों में चक्षुइन्द्रियका अभाव होनेसे उनके अचक्षुदर्शनके अभावका प्रसंग आजायगा । शंका- दृष्टान्तमें 'दृष्ट' शब्द उपलम्भवाचक ग्रहण करना चाहिये ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उपलब्ध पदार्थको विषय करनेवाली स्मृतिको दर्शन स्वीकार कर लेने पर मनको विषय रहितपनेकी आपत्ति आजाती है । इसलिये स्वरूपसंवेदन दर्शन है ऐसा स्वीकार कर लेना चाहिये । शंका - ज्ञान ही दो स्वभाववाला क्यों नहीं मान लिया जाता है ? Jain Education International समाधान- नहीं, क्योंकि, अपनेसे भिन्न वस्तुका परिच्छेदक ज्ञान है और अपने से अभिन्न वस्तुका परिच्छेदक दर्शन है, इसलिये इन दोनों में एकपना नहीं बन सकता है । १ दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनयोर्मिथ्यादृष्टयादीनि क्षणिकषायान्तानि सन्ति । स. सि. १.८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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