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________________ १, १, ११५.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे णाणमग्गणापरूवणं [३५७ मिति । किं तर्हि ? कथं चक्षुरनिन्द्रियाभ्यामनिःसृतानुक्तावग्रहादिः तयोरपि प्राप्यकारित्वप्रसङ्गादिति चेन्न, योग्यदेशावस्थितेरेव प्राप्तेरभिधानात् । तथा च रसगन्धस्पर्शानां स्वग्राहिभिरिन्द्रियैः स्पष्टं स्वयोग्यदेशावस्थितिः शब्दस्य च । रूपस्य चक्षुषाभिमुखतया, न तत्परिच्छेदिना चक्षुषा प्राप्यकारित्वमनिःसृतानुक्तावग्रहादिसिद्धेः। किं च तेनाभिहितेनानुक्तावग्रहः, यथा दध्नो गन्धग्रहणकाल एव तद्रसोपलम्भः । नियमितधर्मविशिष्टवस्तुनो वस्त्वेकदेशस्य वा ग्रहणमुक्तावग्रहः । सोऽयमित्यादि ध्रुवावग्रहः । न सोऽयमित्याद्यध्रुवावग्रहः । एवमीहादीनामपि योज्यम् । सर्वाण्येतानि मतिज्ञानम् । शब्दधूमादिभ्योऽर्थान्तरावगमः श्रुतज्ञानम् । तत्र शब्दलिङ्गजं द्विविधमङ्गमङ्गबाह्य शंका - तो फिर अप्राप्यकारीपनेसे क्या प्रयोजन है ? और यदि पूरी तरहसे अनिःसृतत्व और अनुक्तत्वको अप्राप्त नहीं कहते हो तो चक्षु और मनसे अनिःसृत और अनुक्तके अवग्रहादि कैसे हो सकेंगे? यदि चक्षु और मनसे भी पूर्वोक्त अनिःसृत और अनुक्तके अवग्रहादि माने जावेंगे तो उन्हें भी प्राप्यकारित्वका प्रसंग आ जायगा? समाधान-नहीं, क्योंकि, इन्द्रियों के ग्रहण करनेके योग्य देशमें पदार्थोकी अवस्थि. तिको ही प्राप्ति कहते हैं। ऐसी अवस्थामें रस, गन्ध और स्पर्शका उनको ग्रहण करनेवाली इन्द्रियों के साथ अपने अपने योग्य देशमें अवस्थित रहना स्पष्ट ही है। शब्दका भी उसको ग्रहण करनेवाली इन्द्रियके साथ अपने योग्य देशमें अवस्थित रहना स्पष्ट है। उसीप्रकार रूपका चक्षुके साथ अभिमुखरूपसे अपने देशमें अवस्थित रहना स्पष्ट है, क्योंकि, रूपको ग्रहण करनेवाले चक्षुके साथ रूपका प्राप्यकारीपना नहीं बनता है । इसप्रकार अनिःसृत और अनुक्त पदार्थों के अवग्रहादिक सिद्ध हो जाते हैं। उपर कहे हुए कथनानुसार अनुक्तावग्रह यह है । जैसे, दहीके गन्धके ग्रहण करनेके कालमें ही दहीके रसकी भी उपलब्धि हो जाती है। निश्चित धर्मोंसे युक्त वस्तुका अथवा वस्तुके एकदेशका ग्रहण करना उक्तावग्रह है। 'वह यही है' इत्यादि प्रकारसे ग्रहण करनेको ध्रुवावग्रह कहते हैं। वह यह नहीं है' इत्यादि प्रकारसे ग्रहण करनेको अधुवावग्रह कहते हैं। इसीप्रकार ईहादिसंबन्धी उक्त अनुक्त आदिको भी जानना चाहिये । इन सभी भेदोंको मतिज्ञान कहते हैं। शब्द और धूमादिक लिंगके द्वारा जो एक पदार्थसे दूसरे पदार्थका ज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। उनमें शब्दके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाला श्रुतज्ञान दो प्रकारका है, अंग १ प्रतिषु मामादिग्यो' इति पाठः। २ अवगहादिधारणापेरतमदिणाणेण अवगैयथादी अण्णत्थावगमी सुदणाण । तेच दुविह, सद्दलिंगजे असद्दलिंग चेदि। धूमलिंगादो जलणावगमी असद्दलिंगजो। अवरो सद्दलिंगजो। किं लक्खणं लिंग ? अण्णहाणुववत्तिलक्खणं । धवला. अ. पृ. ११७१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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