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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
देवगतौ निरूपणार्थमुत्तरसूत्रमाह-
देवामिच्छाट्टि सासणसम्माइट्टि असंजदसम्माइदि-हाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जता ॥ ९४ ॥
[ १, १, ९४.
अथ स्याद्विग्रहगतौ कार्मणशरीराणां न पर्याप्तिस्तदा पर्याप्तीनां षण्णां निष्पत्तेरभावात् । न अपर्याप्तास्ते आरम्भात्प्रभृति आ उपरमादन्तरालावस्थायामपर्याप्तिव्यपदेशात् । न चानारम्भकस्य स व्यपदेशः अतिप्रसङ्गात् । ततस्तृतीयमप्यवस्थान्तरं वक्तव्यमिति नैष दोष:, तेषामपर्याप्तेष्वन्तर्भावात् । नातिप्रसङ्गोऽपि कार्मणशरीर - स्थितप्राणिनामिवापर्याप्तकैः सह सामर्थ्याभावेोपपादैकान्तानुवृद्धियोगैर्गत्यायुः प्रथमद्वित्रिसमयवर्तनेन च शेषप्राणिनां प्रत्यासत्तेरभावात् । ततोऽशेष संसारिणामवस्थाद्वयमेव नापरमिति स्थितम् ।
अब देवगतिमें निरूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
देव मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं ॥ ९४ ॥
शंका – विग्रहगतिमें कार्मण शरीर होता है, यह बात ठीक है। किंतु वहां पर कार्मणशरीरवालोंके पर्याप्त नहीं पाई जाती है, क्योंकि, विग्रहगतिके कालमें छह पर्याप्तियोंकी निष्पत्ति नहीं होती है ? उसीप्रकार विग्रहगतिमें वे अपर्याप्त भी नहीं हो सकते हैं, क्योंकि, पर्याप्तियोंके आरम्भसे लेकर समाप्ति पर्यन्त मध्यकी अवस्थामें अपर्याप्त यह संज्ञा दी गई है। परंतु जिन्होंने पर्याप्तियोंका आरम्भ ही नहीं किया है ऐसे विग्रहगतिसंबन्धी एक दो और तीन समयवर्ती जीवोंको अपर्याप्त संज्ञा नहीं प्राप्त हो सकती है, क्योंकि, ऐसा मान लेने पर अतिप्रसंग दोष आता है । इसलिये यहां पर पर्याप्त और अपर्याप्तसे भिन्न कोई तीसरी अवस्था ही कहना चाहिये ?
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समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, ऐसे जीवों का अपर्याप्तों में ही अन्तर्भाव किया गया है। और ऐसा मान लेने पर अतिप्रसंग दोष भी नहीं आता है, क्योंकि, कार्मणशरीर में स्थित जीवोंको अपर्याप्तकों के साथ सामर्थ्याभाव, उपपादयोगस्थान, एकान्तवृद्धियोगस्थान और गति तथा आयुसंबन्धी प्रथम, द्वितीय और तृतीय समय में होनेवाली अवस्थाके द्वारा जितनी समीपता पाई जाती है, उतनी शेष प्राणियोंकी नहीं पाई जाती है । इसलिये कार्मणकाययोगमें स्थित जीवोंका अपर्याप्तकों में ही अन्तर्भाव किया जाता है । अतः संपूर्ण प्राणियोंकी दो अवस्थाएं ही होती हैं । इनसे भिन्न कोई तीसरी अवस्था नहीं होती है ।
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