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१, १, ९०.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोगमग्गणापरूवणं
[३२९ सम्यग्दृष्टिस्तत्र विशिष्टवेदादिषु समुत्पद्यत इति गृह्यताम् । तिर्यगपर्याप्तेषु किम निरूपितमिति नाशङ्कनीयम्, तत्र प्रतिपक्षाभावतो गतार्थत्वात् । .
मनुष्यगतिप्रतिपादनार्थमाह -
मणुस्सा मिच्छाइट्टि-सासणसम्माइडि-असंजदसम्माइटि-टाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ॥ ८९ ॥
सुगममेतत् । तत्र शेषगुणस्थानसत्त्वावस्थाप्रतिपादनार्थमाहसम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजद-संजद-ट्ठाणे णियमा पज्जत्ता
॥९ ॥ भवतु सर्वेषामेतेषां पर्याप्तत्वं नाहारशरीरमुत्थापयतां प्रमत्तानामनिष्पन्नाहारगतषट्पर्याप्तीनाम् । न पर्याप्तकर्मोदयापेक्षया पर्याप्तोपदेशः तदुदयसत्त्वाविशेषतोऽसंयत
शंका-तिर्यंच अपर्याप्तोंमें गुणस्थानोंका निरूपण क्यों नहीं किया ?
समाधान--नहीं, क्योंकि, अपर्याप्त तिर्यंचोंमें एक मिथ्यात्व गुणस्थानको छोड़कर प्रतिपक्षरूप और कोई दूसरा गुणस्थान नहीं पाया जाता है, अतः विना कथन किये ही इसका झान हो जाता है।
विशेषार्थ-यहां अपर्याप्त तिर्यंचोंसे लभ्यपर्याप्त तिर्यंचोंका ग्रहण करना चाहिये । भौर लम्ध्यपर्याप्तकोंके एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है। अतः उनके विषयमें यहां पर अधिक नहीं कहा गया है। .
अब मनुष्यगतिके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
मनुष्य मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं ॥ ८९॥
इस सूत्रका अर्थ सरल है।
मनुष्यों में शेष गुणस्थानोंके सद्भावरूप अवस्थाके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
मनुष्य सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानोंमें नियमसे पर्याप्तक होते हैं ॥९॥
___ शंका-सूत्रमें बताये गये इन सभी गुणस्थानवालोंको यदि पर्याप्तपना प्राप्त होता है तो होओ, परंतु जिनकी आहारक शरीरसंबन्धी छह पर्याप्तियां पूर्ण नहीं हुई हैं ऐसे माहारक शरीरको उत्पन्न करनेवाले प्रमत्त गुणस्थानवी जीवोंके पर्याप्तपना नहीं बन सकता है। यदि पर्याप्त नामकर्मके उदयकी अपेक्षा आहारक शरीरको उत्पन्न करनेवाले
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