________________
३२८] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, १, ८७. पंचिंदिय-तिरिक्ख-जोणिणीसुमिच्छाइट्टि-सासणसम्माइट्टि-टाणे सिया पजत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ ॥ ८७ ॥
सासादनो नारकोष्विव तिर्यक्ष्वपि नोत्पादीति चेन्न, द्वयोः साधाभावतो दृष्टान्तानुपपत्तेः।
तत्र शेषगुणानां स्वरूपमभिधातुमाह -
सम्मामिच्छाइटि-असंजदसम्माइट्टि-संजदासंजद-ट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ॥ ८८॥
कुत: ? तत्रैतासामुत्पत्तेरभावात् । बद्धायुष्कः क्षायिकसम्यग्दृष्टि रकेषु नपुंसकवेद इवात्र स्त्रीवेदे किनोत्पद्यत इति चेन, तत्र तस्यैवैकस सत्त्वात् । यत्र वचन समुत्पद्यमानः
योनिमती-पंचेन्द्रिय-तिर्यंच मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानमें पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं ॥ ८७ ॥
शंका-- सासादन गुणस्थानवाला जीव मरकर जिसप्रकार नारकियों में उत्पन्न नहीं होता है, उसीप्रकार तिर्यंचों में भी उत्पन्न नहीं होना चाहिये ? ।
समाधान-नहीं, क्योंकि, नारकी और तिर्यंचों में साधर्म्य नहीं पाया जाता है, इसलिये नारकियोंका दृष्टान्त तिर्यंचोंको लागू नहीं हो सकता है।
योनिमती तिर्यंचनियोंमें शेष गुणस्थानोंके स्वरूपका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
योनिमती-तिर्यंच सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानमें नियमसे पर्याप्तक होते हैं ॥ ८८ ।
शंका-ऐसा क्यों होता है ! समाधान-क्योंकि, उपर्युक्त गुणस्थानों में मरकर योनिमती-तिर्यच उत्पन्न नहीं
होते हैं।
शंका-जिसप्रकार बद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव नारकसंबन्धी नपुंसकवेदमें उत्पन्न होता है उसीप्रकार यहां पर स्त्रीवेदमें क्यों नहीं उत्पन्न होता है ? ।
समाधान नहीं, क्योंकि, नरकमें एक नपुंसकवेदका ही सद्भाव है । जिस किसी गतिमें उत्पन्न होनेवाला सम्यग्दृष्टि जीव उस गतिसंबन्धी विशिष्ट वेदादिकमें ही उत्पन्न होता है । यह अभिप्राय यहां पर ग्रहण करना चाहिये । इससे यह सिद्ध हुआ कि सम्यग्दृष्टि जीव मरकर योनिमती तिर्यंचमें नहीं उत्पन्न होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org